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________________ द्रव्य एवं अस्तिकाय की अवधारणा / 91 मिलते हैं—(१) जीवंद्रव्य और अजीवद्रव्य, (2) पञ्चास्तिकाय, (3) षड्द्रव्य, (4) नौ तत्त्व / जैन दर्शन द्वैतवादी दर्शन है। इसलिए उसने मूल तत्त्व दो माने हैं—जीव और अजीव / पञ्चास्तिकाय, षड्द्रव्य या नवतत्त्व उन दो का ही विस्तार है। जीव-अजीव को सांख्य आदि द्वैतवादी दर्शन भी पुरुष एवं प्रकृति के रूप में स्वीकार करते हैं। किन्तु अस्तिकाय का सिद्धान्त जैन दर्शन का मौलिक है। जीवास्तिकाय की तुलना सांख्य-सम्मत पुरुष से तथा पुद्गल की तुलना प्रकृति से की जा सकती है / आकाश को प्रायः सभी दार्शनिकों ने स्वीकार किया है। किन्तु धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय की स्वीकृति जैन दर्शन की मौलिक अवधारणा है / द्रव्य शब्द का प्रयोग वैशेषिक दर्शन में भी हुआ है / अस्तिकाय अस्तित्व का वाचक शब्द है / वेदान्त में जैसे ब्रह्म का निरपेक्ष अस्तित्व है, वैसे ही जैन दर्शन में पांच अस्तिकाय का निरपेक्ष अस्तित्व है। पुद्गल के जैसे परमाणु होते हैं वैसे ही चार अस्तिकाय के भी परमाणु होते हैं। पुद्गल के परमाणु उससे अलग हो सकते हैं किन्तु चार अस्तिकाय के परमाणु स्कन्ध रूप में ही रहते हैं अतः उनको प्रदेश कहा जाता है / अस्तिकाय को प्रदेशात्मक बताकर भगवान् महावीर ने उसके स्वरूप को एक नया आयाम प्रदान किया है। जैन दर्शन में अस्तित्व का अर्थ है-परमाणु या परमाणु स्कन्ध / जीवास्तिकाय के परमाणु चैतन्यमय हैं तथा शेष के चैतन्य रहित हैं। धर्म आदि चारों अस्तिकाय के परमाणु स्कन्ध रूप में रहते हैं जबकि पुद्गल की स्कन्ध एवं परमाणु रूप दोनों अवस्थाएँ हैं। अस्ति शब्द के दो अर्थ है-(१) कालिक अस्तित्व, (2) प्रदेश / काय का अर्थ हैं राशि समूह / प्रदेश- समूह को अस्तिकाय कहते हैं। उसका कालिक अस्तित्व है। उनके द्वारा ही तीनों लोक निष्पन्न हुए हैं जेसिं अस्थिसहाओ गुणेहिं सह पज्जएहिं विविहेहिं / .. .ते होति अस्थिकाया णिप्पण्णं जेहिं तइलुक्कं / / अस्तिकाय नित्य है तथा त्रैकालिक भाव परिणत है। वे अस्तिकाय ही, काल जो परिवर्तन लिङ्गवाला है, उससे युक्त होकर द्रव्य कहलाते हैं- ते चेव अस्थिकाया तेकालियभावपरिणदा णिच्चा। गच्छन्ति दवियभावं परिचयट्टणलिङ्ग संजुत्ता / / ... अस्तिकाय सत् स्वरूप हैं लोक के कारणभूत हैं / उनका अस्तित्व नियत हैं। आकाश के एक क्षेत्र में सारे अस्तित्व अवगाहित होने पर भी उनका स्वरूप भिन्न-भिन्न
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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