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________________ 242 / आर्हती-दृष्टि के अभाव में ज्ञान पैदा नहीं हो सकता। ज्ञाता जब ज्ञेय के सम्पर्क में आता है तब उसमें 'ज्ञान' नामक गुण उत्पन्न होता है ज्ञान आत्मा का आगन्तुक धर्म है क्योंकि . चेतना उसका आगन्तुक लक्षण है। न्याय दर्शन के अनुसार द्रव्य अपनी उत्पत्ति के प्रथम क्षण में गुण विहीन होता है। समवाय सम्बन्ध के द्वारा उत्पत्ति के बाद गुण का गुणी से सम्बन्ध करवाया जाता है। चैतन्य गुण आत्मा से अन्य है। समवाय सम्बन्ध रूप उपाधि से आगत है।" न्यायदर्शन की आत्मा स्वरूपतः अज्ञान स्वरूप है / जब ज्ञाता ज्ञेय पदार्थ के संपर्क में आता है तब ज्ञेय पदार्थ के द्वारा ही ज्ञाता में ज्ञान पैदा होता है / ज्ञेय पदार्थ के अभाव में ज्ञान पैदा ही नहीं हो सकता। ज्ञान का कार्य ज्ञेय पदार्थ को प्रकाशित करना है।" बुद्धि, उपलब्धि, अनुभव ये शब्द ज्ञान के पर्याय हैं। जैन दर्शन ज्ञान को आत्मा का आगन्तुक धर्म नहीं मानता है। ज्ञान तो आत्मा का स्वरूप है। आत्मा चैतन्य लक्षण वाली है।" ज्ञान का अस्तित्व ज्ञेय पदार्थ पर निर्भर नहीं है। वह स्वत; अस्तित्ववान् है। जैन दर्शन के अनुसार गुण-गुणी में धर्म-धर्मी में ज्ञानगत भिन्नता है वस्तुगत भिन्नता नहीं है / द्रव्य गुण से संयुक्त ही होता है। उत्पत्ति के प्रथम क्षण में अगुणता का सिद्धान्त सम्यक् नहीं है। न्याय के अनुसार यथार्थ एवं अयथार्थ के भेद से ज्ञान दो प्रकार का है। वस्तु जैसी है उसका वैसा ही ज्ञान होना यथार्थ ज्ञान है। तथा वस्तु स्वभाव से विपरीत ज्ञान होना अयथार्थ अनुभव है। इनके अनुसार ज्ञान स्वप्रकाशक नहीं है मात्र अर्थप्रकाशक है। ज्ञान भी ज्ञानान्तर वेद्य है।" प्रमाण के चार प्रकार इस दर्शन में स्वीकार किए गए हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान उपमान और शाब्द (आगम)। मीमांसा दर्शन में ज्ञान को आत्मा का विकार कहा गया है। ज्ञान को एक क्रिया का व्यापार कहा गया है और उसे अतीन्द्रिय माना गया है। इस दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा जैसे सूक्ष्म द्रव्य में पाया जाता है। प्रमुख मीमांसक कुमारिल एवं प्रभाकर की ज्ञान सम्बन्धी अवधारणा पृथक्-पृथक् दीखती है। कुमारिल का ज्ञान विषयक मत ज्ञाततावाद कहलाता है / यह प्रभाकर के मत से भिन्न है / कुमारिल. के अनुसार ज्ञान स्व-प्रकाशक नहीं है। ज्ञान केवल ज्ञेय विषय को ही प्रकाशित करता है / अर्थ प्राकट्य के द्वारा उसका ज्ञान होता है / जैन मत से जो ज्ञान स्व-प्रकाशक नहीं है वह अर्थ प्रकाशक भी नहीं हो सकता। प्रभाकर का ज्ञान विषयक मत त्रिपुटी प्रत्यक्षवाद कहा जाता है। वे ज्ञान को स्व-प्रकाशक मानते हैं। उसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए किसी अन्य ज्ञान की
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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