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________________ 254 / आहती-दृष्टि मूलसूत्र में भी उनका वर्णन है। नन्दी सूत्र में तो केवल पञ्चविद्य ज्ञान की ही चर्चा है। आवश्यक नियुक्ति जैसे प्राचीन व्याख्या ग्रन्थ का मंगलाचरण पंचज्ञान के द्वारा ही किया गया है। पंचज्ञान की भगवान् महावीर से भी पूर्ववर्तिता राजप्रश्नीय सूत्र के द्वारा भी ज्ञात होती है। शास्त्रकार ने भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य केशीकुमार के मुख से ये वाक्य कहलवाए हैंएंव खु पएसी अम्हं समणाणं निग्गंथाणं पंचविहे नाणे पण्णत्ते, तं जहा. आभिणिबोहियनाणे, सुयनाणे, ओहिणाणे मणपज्जवणाणे केवलणाणे। इस उद्धरण से स्पष्ट फलित होता है कि इस आगम के संकलनकर्ता के मत से भगवान् महावीर से पहले भी श्रमणों में पांच ज्ञान की मान्यता थी। उनकी यह मान्यता निर्मूल भी नहीं है। उत्तराध्ययन के २३वें अध्ययन के केशी-गौतम-संवाद से स्पष्ट है कि भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा में प्रचलित आचार विषयक संशोधन महावीर ने किया है किन्तु पार्श्वनाथ परम्परा के तत्त्व चिन्तन में विशेष संशोधन नहीं किया है। इस सम्पूर्ण चर्चा से फलित होता है कि भगवान् महावीर ने पांच ज्ञान की नवीन चर्चा प्रारम्भ नहीं की है किन्तु पूर्व परम्परा से जो चली आ रही थी उसको ही स्वीकार कर उसे आगे बढ़ाया है। आगम युग में ज्ञान आगम साहित्य के आलोक में ज्ञान चर्चा के विकास क्रम का अवलोकन करने से उसकी तीन भूमिकाओं का स्पष्ट अवभास होता है। 1. प्रथम भूमिका में ज्ञान को पाँच भेदों में ही विभक्त किया गया है। 2. द्वितीय भूमिका में ज्ञान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो भेदों में विभक्त किया गया है। पाँच ज्ञान में प्रथम दो मति एवं श्रुत को परोक्ष एवं अवधि मनःपर्यव एवं केवल ज्ञान को प्रत्यक्ष के अन्तर्गत स्वीकार किया गया है / इस भूमिका में आत्म मात्र सापेक्ष ज्ञान को ही प्रत्यक्ष स्वीकार किया है। इन्द्रियों से उत्पन्न ज्ञान को परोक्ष माना गया है। जिस इन्द्रिय ज्ञान को अन्य सभी दार्शनिक प्रत्यक्ष स्वीकार करते थे, वह इन्द्रिय ज्ञान जैन आगमिक परम्परा में परोक्ष ही रहा। 3. तृतीय भूमिका में इन्द्रिय-जन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों के अन्तर्गत स्वीकार किया है / इस भूमिका में लोकानुसरण स्पष्ट है। प्रथम भूमिकागत ज्ञान का वर्णन हमें भगवती सूत्र में उपलब्ध होता है। वहां पर ज्ञान को पांच भागों में विभक्त किया है। जो निम्न सारिणी में समझा जा सकता है
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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