________________ जैनज्ञानमीमांसा का विकास मानवसंस्कृति के उदयकाल से ही ज्ञान विमर्श का विषय रहा है। हर सभ्यता, संस्कृति ने ज्ञान की महत्ता को निर्विवाद रूप से स्वीकृत किया है। धर्म-दर्शन के इतिहास के परिप्रेक्ष्य में ज्ञान के अस्तित्व का चिन्तन सुदूर अतीत तक चला जाता है। जैन परम्परा में ज्ञान की विशद चर्चा उपलब्ध है। ज्ञान से सम्बन्धित उपलब्ध साहित्य के आधार पर यह सप्रमाण कहा जा सकता है कि जैन दर्शन में जितनी विशदता एवं विस्तृता से ज्ञान की चर्चा है उतनी अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होती है। जैन धर्म में मात्र ज्ञान मीमांसा पर नंदी आदि सूत्रों का प्रणयन हुआ है / अन्य दर्शनों में निखालिस ज्ञान की चर्चा करनेवाली ग्रन्थ अद्यप्रभृति उपलब्ध नहीं है। आगम पूर्ववर्ती ज्ञान चर्चा जैन धर्म में आगम का सर्वोच्च स्थान है। वर्तमान में उपलब्ध जैन साहित्य में आगम ग्रन्थ ही सबसे अधिक प्राचीन है। उन आगमों में तो ज्ञानसिद्धान्त का वर्णन प्राप्त है ही किन्तु आगम से पूर्ववर्ती पूर्वसाहित्य में भी ज्ञान चर्चा का उल्लेख था, इसका भी प्रमाण उपलब्ध है। विशेषावश्यक भाष्य में ज्ञान चर्चा के सन्दर्भ में एक माथा उद्धृत की गयी है। जिसको भाष्यकार एवं कृत्तिकार ने पूर्व गाथा के रूप में स्वीकृत किया है बुद्धिढेि अत्ये जे भासह तं सुयं मईसहियं / इयरत्य वि होज्ज सुबंदिसमं जइ भणेजा। विभा 128; पूर्व श्रुत जो भगवान् महावीर से थी पूर्ववर्ती था तथा अब वह नष्ट हो गया है ऐसी मान्यता है / उस पूर्व श्रुत में शाकावाद नाम का पूर्व था जिसमें पंचविधज्ञान की चर्चा थी दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों परम्पराएं इस तथ्य को स्वीकार करती हैं। कर्म सम्बन्धी अति प्राचीन माने जाने वाले ग्रन्थों में भी पञ्चविध ज्ञान के आधार पर ही ज्ञानावरणीय कर्म की प्रकृतियों का विभाजन है / कर्म सम्बन्धी अवधारणा निश्चित रूप से लुप्त हुए कर्मप्रवाद पूर्व की अवशिष्ट परम्परा मात्र हैं / उपलब्ध श्रुत में प्राचीन माने जाने वाले आगमों में भी पञ्चविध ज्ञान की स्पष्ट चर्चा है / उत्तराध्ययन जैसे प्राचीन