________________ जैनज्ञानमीमांसा का विकास / 255 ज्ञान केवल आभिनिबोधिक श्रुत अवधि मनःपर्यव / / अवग्रह ईहा अवाय धारणा भगवती सूत्र में ज्ञान सम्बन्धी इससे आगे के वर्णन को राजप्रश्नीय सूत्र से पूरा करने का निर्देश दिया गया है तथा राजप्रश्नीय से पूर्वोक्त भेदों के अतिरिक्त अवग्रह के दो भेदों का कथन करके शेष की नन्दी सूत्र से पूर्ति करने की सूचना दी गई है। इस वर्णन का तात्पर्यार्थ यही है कि शेष वर्णन नन्दी के अनुसार होने पर भी यह अन्तर है कि इस भूमिका में नन्दीसूत्र के प्रारम्भ में कथित प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदों का कथन नहीं है तथा नन्दी में आगत श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित का भी इस भूमिका में उल्लेख नहीं है। इसी आधार पर कहा जा सकता है कि यह वर्णन प्राचीन भूमिका का है। स्थानांगगत ज्ञान चर्चा द्वितीय भूमिका की प्रतिनिधि है। स्थानांग में ज्ञान के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ये दो भेद किए गए हैं तथा पांच ज्ञानों का समाहार इन दो भेदों में हुआ है / इस सूत्र में मुख्यतः ज्ञान के दो भेदों का उल्लेख है, पांच का नहीं / यह स्पष्ट ही प्राथमिक भूमिका का विकास है। . . ज्ञान 1. प्रत्यक्ष - 2. परोक्ष 1. केवल 2. नोकेवल 1. आभिनिबोधिक 2. श्रुतज्ञान 1. अवधि 2. मनःपर्यय . 1. श्रुतनिःसृत 2. अश्रुतनिःसृत 1. भवप्रत्ययिक 2. क्षायोपशमिक 1. अर्थावग्रह 2. व्यंजनावग्रह | 1. ऋजुमति 2. विपुलमति 1. अर्थविग्रह 2. व्यंजनावग्रह 1. अंगप्रविष्ट 2. अंगबाह्य 1. आवश्यक 2. आवश्यक व्यतिरिक्त 1. कालिक २.उत्कालिक