________________ 370 / आर्हती-दृष्टि त्रैरूप्य तो स्वीकार किया है, कहीं-कहीं हेतु का पंचरूप्य का समर्थन भी किया है। जैन-तार्किकों ने हेतु के त्रैरूप्य का निरसन किया है। उन्होंने अन्यथानुपपत्ति या अविनाभाव को ही एकमात्र हेतु का लक्षण माना। स्वामी पात्रकेसरी ने त्रैरूप्य का निरसन कर अन्यथानुपपत्ति लक्षण हेतु का समर्थन किया। उनका प्रसिद्ध श्लोक है अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्। नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्॥ . . . ____ जहां अन्यथानुपपत्ति है, वहां हेतु का त्रैरुप्यलक्षण मानने से क्या लाभ? जहां . अन्यथा अनुपपत्ति नहीं है, वहां हेतु का त्रैरूप्य लक्षण मानने से क्या लाभ? जैन के अनुसार हेतु का अविनाभाव यह एक लक्षण ही अपने साध्य की सिद्धि करने में समर्थ है अतः हेतु को त्रैरूप्य अथवा पंचरूप्य मानने की आवश्यकता नहीं है। अविनाभाव ज्ञप्ति के उपाय ___अविनाभाव के लिए त्रैकालिक अनिवार्यता अपेक्षित है। अनिवार्यता की त्रैकालिकता का बोध हुए बिना अविनाभाव का नियम निर्धारित नहीं किया जा सकता। नैयायिक मानते हैं कि भूयो-दर्शन से अविनाभाव का बोध होता है। बार-बार दो वस्तुओं का साहचर्य देखते हैं, तब उस साहचर्य के आधार पर नियम का निर्धारण कर लेते हैं। नियम का आधार केवल साहचर्य ही नहीं होता, किन्तु व्यभिचार का अभाव भी होना चाहिए। इस प्रकार व्याप्ति ज्ञान के लिए दो विषयों का ज्ञान आवश्यक है—साहचर्य का ज्ञान तथा व्यभिचार ज्ञान का अभाव। धूम के साथ अग्नि का साहचर्य और धूम के साथ अग्नि का व्यभिचार कहीं भी प्राप्त नहीं है, अतः अव्यभिचारी साहचर्य सम्बन्ध से ही व्याप्ति का बोध होता है।" आचार्य महाप्रज्ञजी ने व्याप्ति निर्धारण की शर्त पर अपने मौलिक विचारों को प्रस्तुत करते हुए कहा—'अविनाभाव के नियम के साथ जुड़ी हुई त्रैकालिकता की शर्त अवश्य ही परीक्षा की कसौटी पर कसने योग्य है। अनुपलब्ध ज्ञान उपलब्ध ज्ञान से विशाल है / अविनाभाव का नियम उपलब्ध ज्ञान सापेक्ष ही होना चाहिए। जैन तार्किकों ने भी आविनाभाव के नियम का त्रैकालिक आधार माना है। पर निरन्तर विकासमान ज्ञान एवं अज्ञात से ज्ञात की ओर बढ़ते हुए मानवीय ज्ञान-विज्ञान के चरण यह सोचने को बाध्य करते हैं कि व्याप्ति के पीछे जुड़ा हुआ कालिकता का विशेषण निरपेक्ष नहीं है।"