________________ हीसंपदा जीवन की सार्थकता का एक सूत्र है-श्रुत की आराधना / श्रुत की आराधना करने वाला साधक यदि गहराई में पहुंचता है तो वह प्रह्लाद भाव को भी प्राप्त होता है और ज्ञान रत्न को भी उपलब्ध कर सकता है। प्राकृत श्लोक में कहा है जह-जह सुयमोगाहइ, अइसयरसपसरसंजुयमपुव्वं / तह-तह पल्हाइ मुणी, णव-णव संवेगसद्धाए / साधक जैसे-जैसे श्रुत का अवगाहन करता है, ज्ञान की गहराइयों में जाता है। वैसे-वैसे उसे अतिशय रस आता है और उसे आनन्द का अनुभव होता है। उसमें संवेग के नये-नये आयाम खुलते हैं और उसकी मानसिक प्रसन्नता अत्यधिक बढ़ जाती है। . परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री तुलसी और ज्योतिपुञ्ज आचार्य श्री महाप्रज्ञ के सान्निध्य और मार्गदर्शन में साधु-साध्वियाँ, समण-समणियां श्रुत की आराधना में आगे बढ़े हैं; बढ़ रहे हैं। समणी मंगलप्रज्ञाजी अध्ययनशील है, दर्शन का अध्ययन किया है, गहराई में पैठने का प्रयास भी किया है, इसका प्रमाण है—प्रस्तुत पुस्तक 'आर्हती-दृष्टि' / समणीजी को ऐसी अनेक पुस्तकें तैयार करने का लक्ष्य और यथोचित प्रयास रखना चाहिए ताकि उनका स्वयं का अध्ययन भी विकसित हो और वह अन्य अध्येताओं के लिए भी उपयोगी बने / विश्वास है, प्रस्तुत पुस्तक जैन-दर्शन के अध्येताओं को ज्ञान-खुराक देने में अर्ह सिद्ध होगी। युवाचार्य महाश्रमण भिक्षु-विहार जैन विश्व भारती, लाडनूं 26-8-98