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________________ अनेकान्त का तात्त्विक एवं तार्किक आधार / 153 I should draw attention to the realist and pluralist views of Jaina philosophy and the continuing emphasis on the multiform and infinitely deversified aspect of reality which amounts to the acceptance of an 'open' view of the universe with scope for unending change and discovery:" . अनेकान्त वस्तु के स्वरूप का निर्माण नहीं करता। वस्तु का स्वरूप स्वभाव से है / वह ऐसा क्यों है ? इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती / ‘स्वभावे तार्किका भग्ना:' वस्तु का जैसा स्वरूप है, उसकी व्याख्या करना अनेकान्त का कार्य है। ___ वस्तु अनेकान्तात्मक है। उसमें अस्तित्व-नास्तित्व आदि धर्मों का सहावस्थान है। किसी भी प्रमाण के द्वारा उनकी सहावस्थिति का अपलाप नहीं किया जा सकता। उभयात्मक वस्तु हमारी प्रतीति का विषय बनती है / अतः यह प्रमाणसिद्ध है कि वस्तु विरोधी धर्मों से युक्त है। आचार्य धर्मकीर्ति के शब्दों को मैं इस रूप में प्रयोग करना चाहूंगी-'यदीदं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम्' ।यदि विरोध स्वयं द्रव्यों को रुचिकर है तो वहाँ हम चिन्ता करनेवाले कौन होते हैं। हमारी चिन्ता यह हो सकती है कि हम विरोधी धर्मों में परस्पर समन्वय के सूत्रों का अन्वेषण करें / अनेकान्त वस्तु के विरोधी धर्मों में समन्वय के सूत्रों को खोजनेवाला महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। दार्शनिक एवं व्यावहारिक जगत् की समस्याओं का समाधायक है। जेण विणा लोगस्स ववहारो सव्वहा ण णिव्वडई। तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमोऽणेगंतवायस्स॥ . . प्रतिपाद्य के निष्कर्ष१. समग्र भारतीय चिन्तन प्रत्ययवाद एवं वस्तुवाद इन दो धाराओं में समाविष्ट हो जाते हैं। 2. जैन दर्शन का नय-सिद्धान्त वस्तुवाद एवं प्रत्ययवाद दोनों का समन्वय करता है। 3. पूर्व मीमांसा सम्मत वस्तु त्रयात्मक है अतः उसकी जैन वस्तुवाद से सदृशता . . 4. वस्तु में विरोधी धर्मों का सहावस्थान ही अनेकान्त.का तात्त्विक आधार 5. जैन सम्मत वस्तु की नित्यानित्यात्मकता जात्यन्तर है।
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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