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________________ 152 / आर्हती-दृष्टि स्थावर रूप में अवस्थित है अतः गतिशील नहीं है / वह आदित्य, नक्षत्र आदि रूप में अवस्थित है अतः दूर है। वही पृथ्वी आदि में अवस्थित इस अपेक्षा से निकट भी ___ इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि वस्तु में विरोधी धर्म रहते हैं एवं अपेक्षा भेद से ही उनका समाधान प्राप्त होता है। बौद्ध दर्शन में अनेक स्थान पर अनेकान्तवादी विचारधारा का उल्लेख हुआ है। भगवान् बुद्ध स्वयं कहते हैं कि मैं विभाज्यवादी हूँ / गृहस्थ, आराधक-विराधक दोनों होता है। आराधक-विराधक दोनों विरोधी धर्म हैं, उनको अपेक्षा भेद से समाहित करते हुए भगवान् बुद्ध कहते हैं—गृहस्थ यदि मिच्छाप्रतिपन्न है तो विराधक है, सम्यक् प्रतिपन्न है तो आराधक हैं / उदान में अन्धों एवं हाथी का दृष्टान्त दिया गया है और कहा गया.ये एकांशदर्शी है / अतः इनका मन्तव्य यथार्थ नहीं है। .. ___ सांख्य भी एक वस्तु में विरोधी धर्म को स्वीकार करता है। उसकी प्रकृति त्रिगुणात्मिका है। तीनों ही गुण परस्पर विरोधी हैं वे प्रकृति में रहते हैं / सांख्य का परिणाम सिद्धान्त तो अनेकान्त का ही उपजीवी है। स्थिर द्रव्य के पूर्वधर्म के निवृत होने पर उत्तर धर्म का उत्पाद होना ही परिणाम है। - न्याय-वैशेषिक दर्शन में भी अनेकान्त के समर्थक बिचार उपलब्ध है। वैशेषिक दार्शनिकों ने एक ही पृथ्वी को नित्य-अनित्य रूप स्वीकार किया है। आकाश में संयोग एवं विभाग को स्वीकार कर उसे अनित्य भी मान लिया है। बौद्ध विद्वान् नागार्जुन के प्रश्न को समाहित करते समय उन्होंने एक ही वस्तु को प्रमाण एवं प्रमेय दोनों स्वीकार किया है और अपने मंतव्य को तुला के उदाहरण से पुष्ट किया है / आत्मा ज्ञान का विषय बनती है अतः प्रमेय भी है तथा जानने की क्रिया आत्मा में होती है अतः प्रमाता है / आत्मा की ज्ञानात्मक प्रवृत्ति प्रमाण है और आत्मा ही प्रमिति बन जाती है। मीमांसक दर्शन तो स्पष्ट रूप से एक ही वस्तु को सामान्य विशेषात्मक, उत्पाद-व्यय एवं धोव्य रूप में स्वीकार करता ही है। __उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सभी भारतीय दर्शनों में अनेकान्त दर्शन के कमोबेश रूप में स्फुलिंग उपलब्ध है। जैन वस्तुवाद की अनेकान्तात्मक स्वीकृति ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नये-नये . अन्वेषणों की आधारभूमि एवं उनकी सत्यता की साक्षी बनती है / जैसा कि वी. सी... महलनोबिस ने लिखा है
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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