________________ व्यञ्जनपर्याय और अर्थपर्याय / 117 प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण परिणमन हो रहा है। वस्तु प्रतिक्षण नवीन-नवीन अवस्थाओं को धारण कर रही है, वह परिवर्तन इतना सूक्ष्म होता है कि उसको शब्द अपना विषय नहीं बना सकता / वही वर्तमानवी वस्तु का परिवर्तन अर्थ पर्याय कहलाता है। स्थूल उदाहरण के द्वारा व्यञ्जन एवं अर्थपर्याय को समझा जा सकता है / जैसे चेतन पदार्थ का 'जीवत्व' यह सामान्य स्वरूप है / उसकी काल, कर्म आदि उपाधिकृत संसारित्व, मनुष्यत्व, पुरुषत्व आदि अनन्त भेदवाली छोटी-बड़ी अनेक परम्पराएं हैं। उनमें पुरुष, पुरुष जैसी समान प्रतीति का विषय और एक पुरुष शब्द का प्रतिपाद्य जो सदृश पर्याय प्रवाह है, वह व्यञ्जनपर्याय है और उस पुरुषरूप सदृश प्रवाह में जो सूक्ष्मतम भेद हैं, वे अर्थपर्याय हैं। पर्याय का भिन्नाभिन्नत्व __सन्मति तर्क-प्रकरण के अनुसार अर्थगत भेद अभिन्न हैं एवं व्यञ्जननिश्रित भेद भिन्न एवं अभिन्न उभयरूप हैं 'अत्यगओ य अभिण्णो भइयव्वो वंजणवियप्पो।' - अर्थात् व्यञ्जन पर्याय को भिन्नाभिन्न कहने का तात्पर्य यह है कि पुरुषत्व पर्याय शब्दवाच्य सदश प्रवाह की दृष्टि से यद्यपि एक है फिर भी उसमें बाल्य, यौवन आदि अनेक भेद भासित होने से वह भेद्य भी है.। इसी प्रकार बाल-पर्याय शब्द वाच्य सदृश प्रवाह के रूप में एक होने से अभिन्न होने पर भी उसमें तत्कालजन्म, स्तनघयत्व आदि दूसरे भेदों के कारण भेद्य होने से वह भिन्न भी है। अर्थ-पर्याय को अभिन्न कहने का तात्पर्य यह है कि भेदों की परम्परा में जो भेद अन्तिम होने के कारण अभेद्य होता है। वह अन्तिम भेद यद्यपि स्वयं तो दूसरे का अंश है तथा अन्य भेदों से भिन्न है किन्तु उसमें अन्य कोई भेद करने वाला अंश नहीं होता अतः वह अभिन्न कहलाता है। व्यञ्जन पर्याय पुरुष रूप में जन्म से लेकर मरणपर्यन्त तक पुरुष शब्द का वाच्य एवं सदृश प्रतीति का जो विषय बनता है। उस जीव का पुरुषरूप सदृश प्रवाह व्यञ्जन पर्याय है। व्यञ्जन पर्याय एक प्रकार का अल्पकालीन सामान्य है। द्रव्यरूप सामान्य त्रिकालवर्ती होता है / व्यञ्जन पर्याय को स्थूल व्यवहार में कुछ काल स्थायी सामान्य कहा जा सकता है। पुरुषरूप व्यञ्जन पर्याय में बाल्य, यौवन, वृद्धत्व आदि अनेक प्रकार के जो स्थूल पर्याय हैं वे सब पुरुषरूप व्यञ्जन पर्याय के अवान्तर पर्याय हैं।