________________ व्यञ्जनपर्याय और अर्थपर्याय जैन दर्शन के अनुसार सम्पूर्ण प्रमेय जगत् द्रव्यपर्यायात्मक है / प्रमाण का विषय उभयात्मक वस्तु है / आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाण-मीमांसा में प्रमाण के विषय को प्रस्तुत करते हुए कहा 'द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु प्रमाणस्य विषयः।' प्रत्येक पदार्थ भेदाभेदरूप है / अभेद द्रव्यार्थिक नय का तथा भेद पर्यायार्थिक नय का विषय है / द्रव्य वस्तु के धौव्यात्मक स्वरूप की अवगति देता है, तथा पर्याय वस्तु के उत्पाद-व्ययात्मक स्वरूप को प्रस्तुत करता है / भेद के बिना व्यवहार का संचालन नहीं हो सकता / व्यवहार जगत् में वस्तु का भेदात्मक स्वरूप अधिक स्फूट होता है / वस्तु में भेद संक्षेप से दो प्रकार का होता है-व्यञ्जननियत और अर्थनियत। सन्मतितर्कप्रकरण में इस तथ्य को अभिव्यक्त करते हुए कहा गया ___ 'जो उण समासओ च्चिय वंजणणिअओ य अत्थणिअओ य।' व्यञ्जननियत विभाग शब्द सापेक्ष होता है तथा अर्थनियत विभाग शब्द निरपेक्ष होता है। अर्थनियंत विभाग शब्द का वाच्य नहीं बन सकता। ___ वस्तु के शब्द नियत व्यवहार को व्यञ्जन पर्याय एवं अर्थनियत व्यवहार को अर्थपर्याय कहा जाता है। जैन-सिद्धान्त-दीपिका में व्यञ्जन पर्याय को परिभाषित करते हुए कहा गया 'स्थूलः कालान्तरस्थायी शब्दानां संकेतविषयो व्यञ्जनपर्यायः / ' वस्तु का स्थूल एवं कालान्तर स्थायी जो भेद शब्द का वाच्य बन सकता है, वह व्यञ्जन पर्याय है / वस्तु के सामान्य स्वरूप पर कल्पित अनन्त भेदों की परम्परा में जितना सदृश परिणाम प्रवाह किसी भी एक शब्द का वाच्य बनकर व्यवहार्य होता है, उतना वह वस्तु का सदृश परिणाम प्रवाह व्यञ्जन पर्याय कहलाता है और वस्तु का जो परिणाम शब्द का विषय नहीं बनता, अनभिलाप्य रहता है, वह अर्थपर्याय है। जैन-सिद्धान्त-दीपिका में अर्थ-पर्याय को परिभाषित करते हुए कहा गया 'सूक्ष्मो वर्तमानवी अर्थपरिणाम: अर्थपर्यायः।' .