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________________ अनेकान्त की सर्वव्यापकता अनेकान्त का सिद्धान्त किसी भी एक दर्शन विशेष का नहीं है / तथापि एकान्त . दृष्टि के पृष्ठपोषकों ने इसके विस्तृत दायरे को सीमित करने का प्रयत्न किया। इसको किसी एक दर्शन-विशेष का अभ्युपगम कहकर नकारने का प्रयत्न किया। किन्तु सच्चाई तो यह कि अनेकान्त के बिना किसी का भी कार्य सम्यक् रूप से चल नहीं सकता। सिद्धान्त रूप से अनेकान्त का निराकरण करनेवालों को भी अपने सिद्धान्त की व्याख्या के लिए अनेकान्त सोपान का हठात् आश्रय लेना पड़ा। इस प्रकार के स्पष्ट उदाहरण उनके ग्रन्थों में कई स्थलों पर उपलब्ध होते हैं। ___ बौद्ध दर्शन के प्रणेता भगवान् बुद्ध ने स्थान-स्थान पर अनेकान्त दृष्टि का आश्रय लेकर व्याकरण किया है। विनयपिटक महावग्म और अंगुत्तरनिकाय में भगवान् बुद्ध के साथ सिंह सेनापति के प्रश्नोत्तरों से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। भगवान बुद्ध को अनात्मवादी होने के कारण कुछ लोक अक्रियावादी कहते थे। अतएव सिंह सेनापति ने भगवान् बुद्ध से पूछा कि आपको अक्रियावादी कहते हैं, क्या यह सच है ? इसके उत्तर में भगवान् बुद्ध ने जो कुछ कहा उसके द्वारा उनकी अनेकान्तवादिता प्रकट होती है। उन्होंने कहा-यह सच है मैं अकुशल कर्मों के प्रति, संस्कार के प्रति अक्रिया का उपदेश देता हूं अतः अक्रियावादी हूं तथा कुशल संस्कार की क्रिया का उपदेश देता हूं अतः क्रियावादी हूं। भगवान् बुद्ध ने संयुक्तनिकाय में कहा—जीव और शरीर को एकान्त भिन्न माना जाये तो ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं है अतएव दोनों अन्तों को छोड़कर मैं मध्यम मार्ग का उपदेश देता हूं। ___ आत्मा का नैश्चयिक अस्तित्व स्वीकार करने पर इन्द्रिय और मन पर आत्मा का समारोप किया जाता हैं, इसे विधि पक्ष कहते हैं / एकान्तरूप से आत्मा के अस्तित्व की अस्वीकृति निषेध पक्ष है। बौद्ध दर्शन का कहना है हम न एकान्त विधि पक्ष को और न एकान्त निषेध पक्ष को स्वीकार करते हैं किन्तु हम मध्यम मार्ग को मानते हैं। यह मध्यममार्ग की स्वीकृति अनेकान्त की सूचना है। 'सर्वं अस्ति' यह एक अन्त है। 'सर्वं नास्ति' यह दूसरा अन्त है / भगवान् बुद्ध ने इन दोनों अन्तों को अस्वीकार करके मध्यम मार्ग का अवलम्बन लिया है। वे कहते हैं-'सव्वं अत्थीति खो ब्राह्मण अयं एको अन्तो सव्वं नत्थीति खो ब्राह्मण अयं
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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