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________________ 38 / आहती-दृष्टि एवं पनर्जन्म की स्पष्ट अभिव्यक्ति है। ___दर्शन का प्रादुर्भाव पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म सम्बन्धी विचारणा से होता है। आचारांग-सूत्र के प्रारम्भ में ही यह जिज्ञासा है—'अस्थि मे आया ओववाइए, णत्थि मे आया ओववाइए' मेरी आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली है या नहीं है / दिशा, विदिशाओं में अनुसंचरण करने वाला कौन है ? 'के अहं आसी के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि' मैं अतीत में कौन था? यहां से च्युत होकर भविष्य में कहा जाऊँगा। 'कौन हूं, आया कहां से, और जाना है कहां?' इस प्रकार की जिज्ञासाएं दार्शनिक चिन्तन की पृष्ठभूमि है। पुनर्जन्म भारतीय चिन्तन का सर्वमान्य सिद्धान्त रहा है। सभी चिन्तकों ने इस सिद्धान्त की पुष्टि में अपने प्रज्ञा बल का समायोजन किया है / भारतीय दृष्टि से पुनर्जन्म का मूल कारण कर्म है / और कर्म के कारण ही जन्म-मरण होता है—'रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च जाइमरणं वयन्ति / ' अविद्या, वासना, अदृष्ट आदि कर्म के ही पर्यायवाची शब्द हैं। विभिन्न भारतीय दर्शनों में पुनर्जन्म उपनिषद् - वेदान्त दर्शन ने पुनर्जन्म को स्वीकृति दी है / उपनिषद् का घोष है—'सस्यमिव पच्यते मृत्यः, सस्यमिव जायते पुनः' डॉ. राधाकृष्णन् सर्वपल्ली ने कहा-'पुनर्जन्म में विश्वास कम-से-कम उपनिषदों के काल से चला आ रहा है / वेदों और ब्राह्मणों के काल का यह स्वाभाविक विकास है और इसे उपनिषदों में स्पष्ट अभिव्यक्ति मिली / है।' वेदान्त दर्शन के प्रमुख आचार्य निम्बार्क ने पुनर्जन्म एवं उसके कारणों को स्पष्ट करते हुए कहा है कि आत्मा अजर, अमर एवं अविनाशी है / जब तक जीव अविद्या से आवृत्त है / तब तक जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है / अविद्या निवृत्ति के पश्चात् पुनर्जन्म का अभाव हो जाता है। सांख्य योग दर्शन सांख्य दार्शनिकों के अनुसार आत्मा को अपने पूर्वकृत कर्म के फलस्वरूप दुःख के उपभोग हेतु बार-बार शरीर धारण करना पड़ता है। ‘आत्मनो भोगायतनशरीरं' शरीर भोग का आयतन है / लिङ्ग शरीर के द्वारा आत्मा एक भव से दूरे भव में जाकर शरीर धारण करती रहती है। जब तक विवेक ख्याति नहीं होती तब तक यह चक्र चलता रहता है / पातञ्जल योग भाष्य में भी कहा गया है कि–'सति मूले तद् विपाको
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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