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________________ 170 / आर्हती-दृष्टि दृष्टि से विहंगम करना होगा। जिस परिवार को शोषण का दुर्ग कहा जा रहा है, व्यक्ति दायित्वबोध, लोकशिक्षण, धर्मशिक्षण कर्तव्याकर्तव्य का विवेक भी तो उसी के द्वारा सीख रहा है। परिवार में शान्त-सहवास सहिष्णुता के द्वारा ही आ सकता है ।मैं सब जीवों को सहन करता हूं, वे सब मुझे सहन करे / मेरी सबके प्रति मैत्री है। किसी के प्रति मेरा वैर नहीं है। यह पारस्परिक सहिष्णुता का सूत्र है / सहिष्णुता एवं मैत्री के बिना परिवार, समाज का व्यवस्थित संचालन नहीं हो सकता। परिवार एवं समाज में परस्परता आवश्यक है / डार्विन का उद्विकास का सिद्धान्त सत्य होने पर भी समाज का आदर्श नहीं हो सकता। समाज में वृद्ध-बालक का भी जीवन निर्वाह होता है वे fitest तो नहीं हैं / जीवन के लिए संघर्ष आवश्यक है इसमें सत्यांश हो सकता है किन्तु यह पूर्ण सत्य नहीं है / समाज के सन्दर्भ में जैनाचार्यों द्वारा प्रदत्त सूत्र ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्' का सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण है / पारस्परिक सहयोग से ही जीवन का संचालन होता है / संघर्ष आरोपित हैं सहयोग स्वाभाविक है / अनेकान्त दृष्टि से चिन्तन करने से अनेक समस्याएं समाहित हो जाती हैं। . ___व्यक्ति समाज का एक अंग है / वह सामाजिक जीवन जीता है। समाज के सन्दर्भ में उसके जीवन का विकास होता है। व्यक्ति और समाज को सर्वथा पृथक् एवं अपृथक् नहीं किया जा सकता / व्यक्ति की विशेषता उसको समाज से अलग करती है। व्यक्ति समाज में अभेद का सा है तन्त्र / समाज में तन्त्रों का एक समवाय है। अर्थतन्त्र, राज्यतन्त्र, व्यवसायतन्त्र शिक्षातन्त्र और धर्मतन्त्र सामाजिक जीवन को संचालित करते हैं। जीवन निर्वाह के लिए अर्थतन्त्र, राज्यतन्त्र एवं व्यवस्थातन्त्र कार्य कर रहे हैं। वर्तमान में ये तन्त्र सन्तुलित नहीं है। अर्थतन्त्र के साथ विसर्जन या व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा नहीं जुड़ी हुई है इसलिए वह असन्तुलित है, राज्यतन्त्र केवल नियन्त्रण के आधार पर चल रहा है / उसके साथ हृदय परिवर्तन का प्रयोग जुड़ा हुआ नहीं है अतः वह असन्तुलित है / व्यवसायतन्त्र में प्रामाणिकता का प्रयोग नहीं है अतः असन्तुलित है। शिक्षातन्त्र एकांगी विकास की परिक्रमा कर रहा है। वह सर्वांगीण विकास की धुरी पर नहीं चल रह है अतः सन्तुलित है। धर्मतन्त्र में उपासना का स्थान मुख्य और चरित्र का स्थान गौण हो गया है इसलिए उसका सन्तुलन भी गड़बड़ाया हुआ है। अनेकान्त इन सब तन्त्रों में सन्तुलन की बात कर रहा है। जब ये तन्त्र सन्तुलित होंगे तो निश्चित ही अनेकान्त की समाज-व्यवस्था प्राणीमात्र के लिए कल्याणकारी होगी। अनेकान्त दृष्टि से समस्या का समाधान खोजने पर आग्रह-विग्रह का प्रसंग उपस्थित नहीं होता / अनेकान्त दृष्टिवाला व्यक्ति किसी एक मान्यता, सिद्धान्त, प्रथा में
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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