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________________ 148 / आर्हती-दृष्टि अनेकान्त सिद्धान्त की जैनेतर ग्रन्थों में विरोधी धर्मों के सहावस्थान के कारण ही समीक्षा हुई है। अनेकान्त की समीक्षा बादरायणकृत ब्रह्मसूत्र में 'नैकस्मिन्नसम्भवात् कहकर की गयी है अर्थात् एक ही वस्तु में विरोधी धर्मों का सहावस्थान सम्भव नहीं है / अतः अनेकान्त सिद्धान्त दोषमुक्त नहीं है / ब्रह्मसूत्र के भाष्यकार ने भी एक ही धर्मी में युगपत् विरोधी धर्मों के अवस्थान को असम्भव बताया है / बौद्ध विद्वान् कमलशील ने भी इसी तर्क के आधार पर एकत्र विरोधी धर्मों के अवस्थान को अस्वीकार किया है। और इसी कारण उनको अनेकान्त सिद्धान्त संगत प्रतीत नहीं हो रहा है। ये दोनों ही विद्वान् a priori logic के समर्थक हैं। - जैन तार्किकों का मन्तव्य है कि वस्तु स्वरूप का निर्णय अनुभव निरपेक्ष तर्क से नहीं हो सकता। उसका निर्णय अनुभव के द्वारा ही हो सकता है। अनुभव में वस्तु का स्वरूप उभयात्मक प्रतिभासित होता है। हमें तर्क के आधार पर वस्तु के स्वरूप का अपलाप नहीं करना चाहिए किन्तु अनुभव से प्राप्त तथ्यों को तर्क के द्वारा व्यवस्थित करना ही औचित्यपूर्ण है। जैन तार्किकों का यह भी मंतव्य है कि वस्तु को अभेदमात्र अथवा भेदमात्र माननेवालों को भी प्रतीति (अनुभव) को तो अवश्य स्वीकार करना चाहिए क्योंकि वस्तु की व्यवस्था प्रतीति के द्वारा ही होती है / नील पीत आदि पदार्थों की व्यवस्था संवेदन के द्वारा ही होती है अतः विरोध में भी संवेदन ही प्रमाण है / अर्थात् अनुभव के द्वारा अस्ति-नास्ति विरोधी धर्म एक ही वस्तु में रहते हैं / यह यथार्थ है / घट, मुकुट एवं स्वर्ण में भेद को अवभासित करनेवाला ज्ञान स्पष्ट रूप से हो रहा है। वस्तु की व्यवस्था संवेदनाधीन ही है / इसमें विरोध की गंध का भी अवकाश नहीं है। मीमांसा दर्शन में भी वस्तु व्यवस्था में अनुभव को ही प्रमाण माना है। शबर भाष्य में स्पष्टरूप से कहा गया है जब तर्क एवं पदार्थ के अनुभव में किसी एक का त्याग करना हो तो तर्क का ही त्याग करना चाहिए किन्तु जो प्रत्यक्ष से वस्तु दृष्टिगोचर हो रही है उसका अपह्नव करना संगत नहीं है। प्रत्ययवादी दार्शनिकों का यह अभ्युपगम विचारणीय है कि भेद और अभेद परस्पर एक-दूसरे का परिहार करके ही वस्तु में रहते हैं अतः इन दोनों में कोई एक ही वस्तु में रह सकता है / अस्तित्व-नास्तित्व एक साथ वस्तु में रहते हुए स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे हैं / अतः प्रत्ययवादी दार्शनिकों का अभ्युपगम यथार्थ से परे है / यदि यह कहा जाये कि उनमें परस्पर विरोध है अतः वे साथ में नहीं रहते यह कथन भी तर्कपूर्ण नहीं है क्योंकि विरोध अभाव के द्वारा साध्य होता है" / अनुपलब्धि हेतु से घोड़े के सिर
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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