________________ 50 / आर्हती-दृष्टि देहावयवा मर्माणि / ' इनको चैतन्य केन्द्र भी कहा जाता है / आत्मा शरीर परिमाण होते हुए भी आत्म प्रदेशों की सघनता एवं विरलता के कारण देकार्ते का मत 'आत्मा पीनियल ग्रन्थि में रहती है' सर्वथा आलोच्य नहीं है क्योंकि प्रेक्षाध्यान की भाषा में पीनियल को ज्योति केन्द्र कहा जाता है। वहां आत्म प्रदेशों की सघनता है। शायद इस सघनता के कारण ही देकार्ते ने आत्मा का निवास स्थान पीनियल ग्रन्थि को माना है। ऐसे ही योग की भाषा में समझने से प्लेटो का भी आत्मा के निवास स्थान का अभिमत समझ में आ जाता है। योग के अनुसार प्रशस्त केन्द्र शरीर के ऊपरी भाग में हैं तथा कामकेन्द्र इत्यादि उसके निम्न भाग में हैं। शरीर परिमाणत्व पर आक्षेप एवं परिहार ___आत्मा को शरीर परिमाण मानने पर जैन दार्शनिकों के सामने समस्या उपस्थित की गई कि–'यत् सपरिमाणं तद् सावयवं यत्सावयवं तदनित्यम् / ' जैन का मंतव्य है कि आत्मा कथंचित् अनित्य भी है / जो सपरिमाण होता है, वह सावयव तथा जो सावयव है वह अनित्य है, इस प्रकार जैन के सामने आत्मा के अनित्य होने का प्रसंग उपस्थित किया गया। जो सावयव हो वह अनित्य हो यह जरूरी नहीं है। जैसे घटाकाश, पटाकाश रूप से आकाश सावयव है और नित्य भी है तथा जैन के अनुसार संसार में सम्पूर्ण पदार्थ नित्यानित्य है। आदीपमाव्योमसमस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु। आत्मा नित्य भी है, अनित्य भी है / आत्मा का चैतन्य स्वरूप कदापि नहीं छूटता अतः आत्मा नित्य है / आत्मा के प्रदेश संकुचित एवं विकसित होते रहते हैं, कभी सुख कभी दुःख इत्यादि पर्यायान्तरो से आत्मा अनित्य है। अतः स्याद्वाद दृष्टि से सावयवता भी आत्मा के शरीर परिमाण होने में बाधक नहीं हैं। आत्मा को शरीर प्रमाण मानने से शरीरच्छेद के साथ आत्मा के छेद का प्रसंग भी उपस्थित होगा। जैन को कथंचिद् आत्मोच्छेद मानने में कोई आपत्ति नहीं है। ऐसी अनेक आपत्तियां दार्शनिकों ने आत्मा के देह परिमितत्व के संदर्भ में उपस्थित की हैं किन्तु स्याद्वाद, अनेकान्तवाद के समक्ष वे सब परास्त हो जाती हैं। अतः आत्मा के शरीर परिमाण होने में कोई आपत्ति नहीं है। 'आत्मा व्यापको न भवति, चेतनत्वात यत्त व्यापकं न तत् चेतनम, यथा व्योमः चेतनश्चात्मा, तस्माद् न व्यापकः।' / आत्मा न अणु रूप है न विभु रूप किन्तु वह मध्यम परिमाण वाली शरीर-व्यापी है। यह जैन दर्शन का मन्तव्य है।