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________________ प्रामाण्य : स्वतः या परतः / 349 मीमांसक वेदों के प्रामाण्य का समर्थन तो करते हैं किन्तु उनकी विचारधारा नैयायिकों से विपरीत है / वे ईश्वरवादी नहीं है अतएव वेदों का प्रामाण्य ईश्वरमूलक न कहकर स्वतः स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार वेद में कथित वाक्य स्वतः प्रमाण है उनके प्रामाण्य के लिए किसी अन्य की अपेक्षा नहीं है। इसलिए ही उन्होंने वेदों को अपौरुषेय स्वीकार किया है / पौरुषेय स्वीकार करने पर उनका प्रामाण्य षुरुषाश्रित होने से परतः होता है। ____ वेद-कथित सब स्वतः प्रमाण हैं / उनका ज्ञान किसी पुरुष विशेष को किसी भी अवस्था में नहीं हो सकता। मीमांसकों का मानना है कि अर्थ ज्ञात करने की शक्ति को अथवा अर्थ जाननेवाली क्रिया को प्रामाण्य कहते हैं। वह प्रामाण्य ज्ञानमात्र को उत्पन्न करनेवाली सामग्री से ही उत्पन्न होता है / उस प्रामाण्य के लिए ज्ञान को उत्पन्न करनेवाली सामग्री के अतिरिक्त अन्य किसी भी सामग्री की अपेक्षा नहीं होती। वेद का स्वतःप्रामाण्य स्वीकार करने से प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणों का प्रामाण्य उन्होंने स्वतः स्वीकार किया स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति गम्यताम। न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येनपार्यते // . (मीमां. श्लो. 2-47) सारे प्रमाणों का प्रामाण्य स्वतः ही ज्ञात हो जाता है क्योंकि जो शक्ति स्वयं अविद्यमान है उसे कोई दूसरा उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकता। उनका कहना है यदि प्रामाण्य स्वतः नहीं माना जाएगा तो प्रामाण्य का ज्ञान कभी हो नहीं सकेगा। पूर्वज्ञान को प्रमाणित करने के लिए. अन्य ज्ञान की अपेक्षा होगी, फिर उसे अन्य की इस प्रकार अनवस्था की स्थिति उत्पन्न हो जाने से कभी भी प्रामाण्य निश्चय नहीं होगा / अतएव प्रामाण्य स्वतः ही होता है / मीमांसक ने प्रामाण्य को तो स्वतः स्वीकार किया है ।किन्तु अप्रामाण्य को परतः स्वीकार किया है / उनके अनुसार अप्रामाण्य की उत्पत्ति ज्ञान सामान्य के उत्पादक कारणों से अतिरिक्त दोष नामक कारण से होती है तथा अप्रामाण्य की ज्ञप्ति भी परतः होती है, क्योंकि ज्ञाता को जब तक ज्ञात नहीं होता कि यह ज्ञान अप्रमाण है तब तक वह उस ज्ञान के विषय से निवृत्त नहीं होता है / अतः अप्रामाण्य की ज्ञप्ति परतः होती है। यह स्पष्ट है। . प्रामाण्य-अप्रामाण्य की चर्चा में सांख्य का क्या चिन्तन है, इसका उल्लेख उसके वर्तमान में उपलब्ध ग्रन्थों से ज्ञात नहीं होता फिर भी कुमारिल, माधवाचार्य,
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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