________________ कर्म सिद्धान्त और क्षायोपशमिक भाव / 205 का भेद परिलक्षित है। जैसे कोद्रव धान को धोने से कुछ कोदों की मदशक्ति क्षीण हो जाती है और कुछ की अक्षीण / उसी तरह परिणामों की निर्मलता से कर्मों के एक देश का क्षय एवं एक देश का उपशम होना क्षायोपशमिक भाव है। फलितार्थतः कर्मों के एक देश का क्षय एवं एक देश का उपशम होने को क्षयोपशम कहते हैं। यद्यपि क्षयोपशम में कर्मों का उदय भी विद्यमान रहता है परन्तु उसकी शक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाने के कारण वह जीव के गुणों का घात करने में समर्थ नहीं होता। क्षयोपशम की प्रक्रिया में उदयावलिका प्राप्त अथवा उदीर्ण दलिक का क्षय होता रहता है तथा अनुदीर्ण का उपशम होता रहता है / यह क्षय और उपशम की प्रक्रिया निरन्तर चलती है। उपशम भी दो प्रकार का होता है (1) उदयावलिका में आने योग्य कर्म दलिकों को विपाकोदय के अयोग्य बना. देना, और (2) तीव्र रस का मन्द रस में परिणमन / 3 क्षयोपशम, ज्ञानावरणं आदि चार घाती कर्मों का ही होता है। घातिकर्मों की प्रकृतियां दो प्रकार की होती हैं-(१) सर्वघाती, (2) देशघाती। कर्मग्रन्थ में 20 प्रकृतियों को सर्वघाती एवं 25 को देशघाती स्वीकार किया गया है।" सर्वघाती एवं देशघाती कर्म प्रकृतियों के अनन्तानन्त रस स्पर्धक होते हैं / गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) की टीका में घातिकर्मों की विशिष्ट शक्ति को ही स्पर्धक कहा है। अकलंकदेव ने स्पर्धक को भिन्न प्रकार से व्याख्यायित करते हुए कहा है कि उदयप्राप्त कर्म के प्रदेश अभव्यों से अनन्तगुणा तथा सिद्धों के अनन्तभाग प्रमाण होते हैं। उनमें से सर्वजघन्य गुणवाले प्रदेश के अनुभाग का बुद्धि के द्वारा उतना विभाग किया जाए जिससे आगे विभाग न हो सकता हो / सर्वजीव राशि के अनन्तगुण प्रमाण ऐसे सर्वजघन्य अविभाग परिच्छेदों की राशि को वर्ग कहते हैं। इसी तरह सर्वजघन्य अविभाग परिच्छेदों के, जीव राशि से अनन्तगुण प्रमाण राशिरूप वर्ग बनाने चाहिए। इन समगुणवाले सम संख्यक वर्गों के समूह को वर्गणा कहते हैं। पुनः एक अविभाग परिच्छेद अधिक गुणवालों के सर्वजीवराशि की अनन्त गुण प्रमाण राशि रूप वर्ग बनाने चाहिए। उन वर्गों के समुदाय की वर्गणा बनानी चाहिए। इस तरह एक-एक अविभाग परिच्छेद बढ़ाकर वर्ग और वर्गसमूह रूप वर्गणाएँ तब तक बनानी चाहिए जब तक एक परिच्छेद मिलता जाए। इस क्रमहानि और क्रम वृद्धि वाली वर्गणाओं के समुदाय को स्पर्धक कहते हैं।६ . प्रत्येक कर्म के अनन्तानन्त रस स्पर्धक होते हैं / "सर्वघाती प्रकृतियों के रसस्पर्धक तो सर्वघाती ही होते हैं तथा देशघाती प्रकृतियों के रस-स्पर्धक सर्वघाती एवं देशघाती