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________________ परोक्ष प्रमाण की प्रामाणिकता / 375 उसका निष्कर्ष क्षणिकवाद के रूप में उपलब्ध होता है। नैगमनय के आश्रयण से नैयायिक वैशेषिक सिद्धान्त का उद्भव होता है। अतः नयों की विभिन्नता से निष्कर्ष विभिन्न हैं / आचार्य सिद्धसेन ने इसे स्वीकार कर प्रस्तुत करते हुए कहा 'जावइया वयणपहा तावइया चेव होंति णयवाया।" ये नय परस्पर सापेक्ष होकर वस्तु के यथार्थ स्वरुप का प्रतिपादन करते हैं। निरपेक्ष होकर मिथ्या हो जाते हैं। निरपेक्ष नय के आधार पर निर्मित अनुमान अनुमानाभास होते हैं अतः उनको अनुमान स्वीकार करनेवाले भी यथार्थ नहीं मानते। स्वर्ग, परलोक आदि का निषेध करनेवाले चार्वाक् को अनुमान प्रमाण स्वीकार करना ही होगा। यह हम पहले ही कह चुके हैं तथा स्वर्ग आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के अवगम में आगम प्रमाण स्वीकृत है / आगम के द्वारा उनका बोध हो जाएगा। जैनाचार्य सिद्धसेन ने कहा है-हेतुपक्ष में आगम का एवं आगमपक्ष में हेतु का प्रयोग करनेवाला सिद्धान्त का सम्यक् व्याख्याता नहीं होता अपितु उसका विराधक होता है। अतः अनुमान प्रमाण माननेवाले अनुमान की सीमा से परिचित हैं अतः उसका उसी रूप में प्रयोग मान्य है। मैं आचार्य महाप्रज्ञजी के अभिमत से पूर्णतया सहमत हूं—'व्याप्ति और हेतु की सीमा का बोध न्यायशास्त्र के विद्यार्थी के लिए बहुत आवश्यक है। इस बोध के द्वारा हम अनिश्चय या सन्देह की कारा में बन्दी नहीं बनते किन्तु अवास्तविकता को वास्तविकता मानने के अभिनिवेश से मुक्त हो सकते हैं और नई उपलब्धियों के प्रति हमारी ग्रहणशीलता अबाधित रह सकती है। सन्दर्भ 1. 'प्रत्यक्षं परोक्षं च' प्रमाण मीमांसा 1/10 / 2. न प्रत्यक्षादन्यप्रमाणमिति लौकायतिकाः प्रमाण मीमांसा 1/10 / 3. विशदः प्रत्यक्षम् प्रमाण मीमांसा 1/13 / 4. इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवग्रहेहावायधारणात्मा सांव्यवहारिकम। प्रमाण मीमांसा 1/20 / 5. तच्च द्विविधमनुमनमागमश्चेति। अनुमानमपि द्विविधं गौणमुख्यवि कल्पात् / तत्र गौणमनुमानं त्रिविधं स्मरणं प्रत्यभिज्ञा तर्कश्चेति / तस्य चानुमानत्वं यथापूर्वमुत्तरोत्तरहेतुतयाऽनुमाननिबन्धनत्वात्।। प्रमाण निर्णय (पृ. 33) /
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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