________________ 306 / आर्हती-दृष्टि का साक्षात्कार करता है। मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु मनःपर्यवज्ञान का विषय नहीं है। चिन्त्यमान वस्तु को मन के पौद्गलिक स्कन्धों के आधार पर अनुमान से जाना जाता है / मनःपर्यवज्ञान के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु का साक्षात्कार नहीं किया जा सकता। मणपज्जवनाणं पुण, जणमणपरिचिन्तियत्थपामडणं। माणुसखेत्तनिबद्धं गुणपच्चइयं चरित्तवओ। इस गाथा के आधार पर मनःपर्यवज्ञान का विषय चिन्त्यमान वस्तु बतलाया गया है। चर्णिकार ने इस गाथा की व्याख्या में लिखा है कि मनःपर्यवज्ञान अनन्तप्रदेशी मन के स्कन्धों तथा तद्गत वर्ण आदि भावों को प्रत्यक्ष जानता है। चिन्त्यमान विषयवस्तु को साक्षात् नहीं जानता है क्योंकि चिन्तन का विषय मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के पदार्थ हो सकते हैं। छद्मस्थ मनुष्य अमूर्त का साक्षात्कार नहीं कर सकता इसलिए मनः पर्यवज्ञानी चिन्त्यमान वस्तु को अनुमान से जानता है। इसीलिए मनःपर्यवज्ञान की पश्यत्ता (पण्णवणा 30/2) का निर्देश भी दिया गया है। सिद्धसेनगणि ने चिन्त्यमान विषयवस्तु को और अधिक स्पष्ट किया है। उनका अभिमत है कि मनःपर्यवज्ञान से चिन्त्यमान अमूर्त वस्तु ही नहीं, स्तम्भ, कुम्भ आदि मूर्त वस्तु भी नहीं जानी जाती। उन्हें अनुमान से ही जाना जा सकता है। ____ मनःपर्यवज्ञान से मन के पर्यायों अथवा मनोगत भावों का साक्षात्कार किया जाता है। वे पर्याय अथवा भाव चिन्त्यमान विषय-वस्तु के आधार पर बनते हैं। मनःपर्यवज्ञान का मुख्य कार्य विषयवस्तु या अर्थ के निमित्त से होनेवाले मन के पर्यायों का साक्षात्कार करना है। अर्थ को जानना उसका गौण कार्य है और वह अनुमान के सहयोग से होता है। सिद्धसेनगणि ने मनःपर्यवज्ञान का अर्थ भावमन (ज्ञानात्मक पर्याय) किया है। तात्पर्य की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है / चिन्तन करना द्रव्य मन का कार्य नहीं है। चिन्तन के क्षण में मनोवर्गणा के पुद्गल स्कन्धों की आकृतियां अथवा पर्याय बनते हैं वे सब पौद्गलिक होते हैं। भाव मन ज्ञान-अमूर्त है / अकेवली (छद्मस्थ मनुष्य) अमूर्त को जान नहीं सकता ।वह चिन्तन के क्षण में पौद्गलिक स्कन्ध की विभिन्न आकृतियों का साक्षात्कार करता है। इसलिए मन के पर्यायों को जानने का अर्थ भाव-मन को जानना नहीं होता किन्तु भाव-मन के कार्य में निमित्त बननेवाले मनोवर्गणा के पुद्गल स्कन्धों के पर्यायों को जानना होता है। ..