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________________ 228 / आर्हती-दृष्टि ने सूत्र स्पर्शिनियुक्ति का विवेचन नमस्कार की उत्पत्ति, निक्षेप, पद आदि 11 द्वारों से किया है। इस प्रस्तुत भाष्य में जैन आचार-विचार के मूलभूत समस्त तत्त्वों का सुव्यवस्थित एवं सुप्ररूपित संग्रह हुआ है। विशेषावश्यकभाष्य आगमानुसारी तार्किक ग्रन्थ है / भाष्यकार ने मंगलाचरण स्वरूप प्रथम कारिका में ही अपनी आगमप्रतिबद्धता गुरुवएसाणुसारेणं' शब्द प्रयोग से स्पष्ट कर दी है। अत: अपने पूर्ववर्ती आचार्यों ने यदि आगम निरपेक्ष मात्र तर्क के द्वारा तत्त्व निरूपण का प्रयल किया है तो भाष्यकार ने उस मत की समीक्षा की है। यथा-आचार्य सिद्धसेन दिवाकर केवलज्ञान एवं केवल दर्शन को युगपद् मानते हैं। जिनभद्रगणि क्षमाक्षमण ने आगमिक मान्यता का आधार देकर ज्ञान, दर्शन के युगपत् सिद्धान्त का प्रतिक्षेप किया है।" ___ दार्शनिक जगत् की समस्याओं का समाधान भी हमें भाष्य में उपलब्ध होता है ।प्रमाण जगत् में अन्य दार्शनिक इन्द्रिय ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते थे। जैन का आगमिक दृष्टिकोण उसको परोक्ष मानने का है / यद्यपि नन्दी सूत्र में ज्ञान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष में विभक्त किया है तथा प्रत्यक्ष को भी इन्द्रिय प्रत्यक्ष नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष के रूप में द्विविध स्वीकार किया है। किन्तु इन्द्रिय प्रत्यक्ष के लिए जिनभद्रगणि ने 'संव्यवहार' प्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग सबसे पहले किया। इससे पूर्व किसी भी दार्शनिक, तार्किक आचार्य ने यह प्रयोग नहीं किया। जिनभद्गणी के बाद तो “संव्यवहार' शब्द इतना बहुप्रचलित हो गया कि उत्तरवर्ती सभी तार्किक आचार्यों ने एकस्वर से इन्द्रिय प्रत्यक्ष के स्थान पर 'सांव्यावहारिक' प्रत्यक्ष का प्रयोग किया है और प्रमाण जगत् में यह बहुआदृत ___भाष्य में तत्त्व की गम्भीरता के साथ प्रतिपादन की सरसता भी परिलक्षित होती है। ग्रन्थकार ने गहन विषय को भी अपने प्रांजल प्रतिपादन वैशिष्ट्य के कारण जन-भोग्य बना दिया है। अनेक प्रकार के सुरुचिपूर्ण दृष्टान्तों से गम्भीर तत्त्व का प्ररूपणभाष्य में हुआ है। आवश्यक सूत्र का आचरण करना उचित है। इस तथ्य को प्रतिपादित करते हुए योगद्वार में कहा गया जिस प्रकार वैद्य बालक आदि के लिए यथोचित आहार की सम्मति देता है, उसी प्रकार मोक्षमार्गाभिलाषीभव्य के लिए प्रारम्भ में आवश्यक का आचरण करना उपयुक्त है। इस भाष्य की महत्ता को प्रकट करते हुए अन्त में भाष्यकार लिखते हैं-इस सामायिक भाष्य के श्रवण, अध्ययन, मनन से बुद्धि परिमार्जित हो जाती है। शिष्यं में शास्त्रानुयोग को ग्रहण करने की क्षमता प्राप्त हो जाती है। विशालकायभाष्य साहित्य में विशेषावश्यकभाष्य का स्थान अत्यन्त
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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