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________________ कालिक एवं उत्कालिक सूत्र / 341 दोनों शब्द पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त हुए हैं। नन्दी के सन्दर्भ में हम द्वादशांग का विभाग करें तो वह दो भागों में विभक्त होता है-गमिक एवं अगमिक / गमिक दृष्टिवाद है तथा अगमिक कालिकसूत्र आचारांग आदि 11 अंग हैं। जब अगमिक को कालिक कहा गया तो उसका फलितार्थ हो जाता है कि गमिक दृष्टिवाद उत्कालिक है / दृष्टिवाद जो आज उपलब्ध नहीं है, कहा जाता है कि उसमें अन्य दर्शनों का वर्णन था। अन्य दार्शनिक जिस किसी भी समय चर्चा के लिए आ जाते थे, अतः उसका समय निश्चित नहीं था, इसलिए वह उत्कालिक सूत्र के रूप में परिगणित था। अनुयोग-द्वार में पांच ज्ञान की चर्चा करते समय सर्वप्रथम श्रुतज्ञान के भेदों-प्रभेदों का वर्णन है। वहां पर आगमों के कालिक, उत्कालिक की चर्चा है। नन्दी और अनुयोग-द्वार में उपलब्ध आगम-विभाग परस्पर समान हैं या विषम-इस विषय पर चिन्तन अपेक्षित है। अनुयोग-द्वार में श्रुतज्ञान के अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य ये दो भेद उपलब्ध हैं। अंग-बाह्य को यहां पर कालिक एवं उत्कालिक-इन दो भेदों में विभक्त किया है / उत्कालिक सूत्र आवश्यक एवं आवश्यकव्यतिरिक्त के भेद से दो प्रकार का माना गया है। नन्दी तथा अनुयोग में उपलब्ध आगम-विभाग में अंग-प्रविष्ट के कालिक, उत्कालिक ये भेद उपलब्ध नहीं हैं / नन्दी में जहां अंग-प्रविष्ट के 12 भेद हैं तथा फलितार्थ के रूप में हम उनका उत्कालिक के रूप में भेद कर चुके हैं, वहां अनुयोग-द्वार में अंग-प्रविष्ट के भेदों की चर्चा नहीं है। यहां केवल अंग-बाह्य के भेद ही प्राप्त हैं। अनुयोग-द्वार अंग-बाह्य के दो भेद करता है-कालिक एवं उत्कालिक तथा इसके पश्चात् उत्कालिक के दो भेद करता है—आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त / जबकि नन्दी में अंग-बाह्य के आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त ये दो भेद हैं तथा आवश्यकव्यतिरिक्त के कालिक एवं उत्कालिक ये दो भेद हैं। . अब एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न हमारे सामने उपस्थित होता है कि नन्दी में आवश्यक व्यतिरिक्त के कालिक एवं उत्कालिक ये दो भेद हैं जबकि अनुयोग-द्वार में उत्कालिक के आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त ये दो भेद हैं / स्थूल दृष्टि से यह विभाजन विरोधग्रस्त प्रतीत होता है, परन्तु इस विरोध का समाधान भी किया जा सकता है / अनुयोग-द्वार के वक्तव्य से हम ऐसा क्यों मानें कि सारे आवश्यक व्यतिरिक्त उत्कालिक ही हैं? इन आगमों में कुछ उत्कालिक भी हैं और कुछ कालिक भी हैं—ऐसा मानना
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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