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________________ 368 / आर्हती-दृष्टि - अनु और मान इन दो शब्दों के योग से अनुमान शब्द निष्पन्न हुआ है। अनु अर्थात् पश्चात् मान अर्थात् ज्ञान / अनुमान में प्रयुक्त अनुपद प्रतियोगी की अपेक्षा रखता है / जो ज्ञान अपनी उत्पत्ति से पूर्व अन्य ज्ञान की अपेक्षा रखता है। पूर्वज्ञान से यहां व्याप्तियुक्त पक्षधर्मता रूप एक विशिष्ट ज्ञान अभिप्रेत है / अतः इस विशिष्ट ज्ञान के पश्चात् होनेवाला ज्ञान अनुमान है / प्रत्यक्षपूर्वक होनेवाला ज्ञान अनुमान है। न्यायसूत्र में भी अनुमान को प्रत्यक्षपूर्वक स्वीकार किया है।" . . जैन-परम्परा में अनुमान का लक्षण सर्वप्रथम आचार्य सिद्धसेन ने किया। साध्य के अविनाभावी साधन से साध्य का निश्चयात्मक ज्ञान अनुमान है। अनुमान की इस परिभाषा का शब्दान्तर से उतरवर्ती सभी जैनतार्किकों ने अनुगमन किया है। जैनेतर दर्शनों मे अनुमान पर बहुत विचार हुआ है। न्याय-दर्शन में अनुमान की परिभाषा में अधिकांश रूप से अनुमान के कारण का निर्देश है ।उनसे अनुमान का स्वरूप किंरूप है, उसका अवबोध प्राप्त नहीं होता है। यथा—अक्षपाद का तत्पूर्वकम्, प्रशस्तपाद का लिङ्गदर्शनात् संजायमानं लैङ्गिगम् तथा उद्योतकर का लिंगपरामर्शोऽनुमानम् " आदि अनुमान के लक्षणों से अनुमान के स्वरूप की अवगति नहीं हो रही है / आचार्य अकलंक द्वारा प्रदत्त प्रमाण के लक्षण में अनुमान के कारण एवं स्वरूप दोनों का अवबोध प्राप्त हो जाता है। "लिंगज्ञान से साध्य का ज्ञान अनुमान है / आचार्य हेमचन्द्र ने साधन से साध्य के ज्ञान को अनुमान कहा है। 2. . ___आचार्य हेमचन्द्र ने अकलंक द्वारा प्रदत्त लिंगज्ञान इस विशेषण पर अनुमान प्रसंग में चिन्तन नहीं किया है। उन्होंने साधन ज्ञान से नहीं किन्तु साधन से साध्यज्ञान को ही अनुमान कहा जैसा कि दिङ्नाग के शिष्य शंकरस्वामी ने कहा है-'अनुमानं लिङ्गादर्थदर्शनम् 13, अनुमान के भेद अनुमान स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमान के भेद से दो प्रकार का प्रज्ञप्त है।" अनुमान के मानसिक क्रम को स्वार्थानुमान तथा शाब्दिक-क्रम को परार्थानुमान कहा जाता है। स्वार्थानुमान में अनुमाता स्वयं अपने संशय की निवृत्ति करता है तथा परार्थानुमान में अन्य की संशय निवृत्ति हित वाक्य प्रयोग के द्वारा अनुमान की प्रक्रिया निष्पन्न करता है।५ आत्मगत ज्ञान स्वार्थ और वचनात्मक ज्ञान परार्थ होता है / वस्तुतः ज्ञान परार्थ नहीं होता / वचन में ज्ञान का आरोपण कर उसे परार्थ माना जाता है / उपचार से वचन को ज्ञान मानकर परार्थ कहा जाता है / वस्तुतः वचन ही परार्थ होता है / प्रमाण ज्ञानात्मक
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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