SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 166 / आर्हती-दृष्टि के विकास के सूचक है। इच्छा परिमाण व्रत में आर्थिक विकास और उन्नत जीवन स्तर की सम्भावनाओं के द्वार बन्द नहीं होते हैं तथा विलासिता के आधार पर होनेवाली आर्थिक प्रगति के द्वार भी खुले नहीं रहते। इच्छा-परिमाण के निष्कर्ष संक्षेप में इस प्रकार हो सकते हैं (1) न गरीबी और न विलासिता का जीवन। (2) सन्तुलित समाज-व्यवस्था। (3) आवश्यकता की सन्तुष्टि के लिए धन का अर्जन किन्तु दूसरों को हानि पहंचाकर अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि न हो, इसका जागरूक प्रयत्न। (4) विसर्जन की क्षमता का विकास / दुःख-मुक्ति एवं मानसिक शान्ति के लिए इच्छाओं का अल्पीकरण बहुत आवश्यक है। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है, 'कामे कमाहि कमियं खु दुक्खें' इच्छाओं का अतिक्रमण करो, दुःख अपने आप अतिक्रमित हो जाएगा। लाभ से लोभ घटता नहीं वह बढ़ता है। यह अनुभूत सत्य का प्रतिपादन है / इच्छाएं आकाश के समान अनन्त हैं / लोभी सोने-चाँदी के ढेर से भी सन्तुष्ट नहीं हो सकता। अनेकान्त का समाज व्यवस्था में अर्थ हो होगा ‘सन्तुलन' / इच्छा को सर्वथा समाप्त भी न किया जाये तथा उसका अत्यधिक विस्तार भी न हो। दोनों का सन्तुलन अत्यन्त अपेक्षित है। सन्तुलित समाज-व्यवस्था अनेकान्त के द्वारा ही घटित हो सकती है भले फिर उसका नामकरण कुछ भी किया जाये। यन्त्रों की अवधारणा में अनेकान्त ___ आज प्राद्यौगिकी का बहुत विकास हुआ है। मनुष्य प्रस्तर युग से परमाणु युग में पहुँच गया है। विज्ञान के विकास ने आज मनुष्यों को सुख-सुविधाओं के अनेकों साधन प्रदान किये हैं। इस तथ्य को ओझल नहीं किया जा सकता। किन्तु विज्ञान का सदुपयोग बहुत कम हुआ है। उसका प्रयोग विध्वंसात्मक कार्यक्रमों में अधिक हो रहा है। यन्त्रों ने मानवजाति को राहत से ज्यादा तनाव की जिन्दगी प्रदान की है। गांधी ने तीन प्रकार के यन्त्रों का उल्लेख किया है। विध्वंसक, मारक एवं तारक। विध्वंसक-बम आदि इनका सर्वथा निर्माण बन्द होना आवश्यक है। मारक यन्त्र जो बेरोजगारी पैदा करते हैं, तारक यन्त्र सिलाई मशीन आदि। गांधीजी विज्ञान के विरोधी नहीं थे। उन्होंने विवेक देने की कोशिश की। उनका मानना था— यन्त्र
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy