________________ ज्ञानस्वरूप विमर्श / 247 अयथार्थ ज्ञान के दो पक्ष होते हैं—आध्यात्मिक और व्यावहारिक / आध्यात्मिक विपर्यय को मिथ्यात्व एवं आध्यात्मिक संशय को मिश्र मोह कहा जाता है। इनका उद्भव आत्मा की मोह दशा में होता है। इससे श्रद्धा विकृत होती है। व्यावहारिक संशय और विपर्यय का नाम समारोप है। यह ज्ञानावरण कर्म के उदय से होता है। इसमें ज्ञान यथार्थ नहीं होता है। पहला पक्ष दृष्टि मोह है तथा दूसरा पक्ष ज्ञान-मोह है इनका भेद समझाते हए आचार्य भिक्षु ने लिखा है-तत्त्व श्रद्धा में विपर्यय होने पर मिथ्यात्व होता है। अन्यत्र विपर्यय होता है, तब ज्ञान असत्य होता है किन्तु मिथ्या नहीं बनता।" दृष्टि-मोह मिथ्यादृष्टि के ही होता है। जबकि ज्ञान-मोह सम्यक् दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि दोनों के होता है। अतः उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ज्ञान के सम्यक् एवं मिथ्या होने में पात्र ही निमित्त बनता है। जयाचार्य ने भी इसी को स्पष्ट किया है। अध्यात्म साधना में सर्वप्रथम दृष्टि का परिमार्जन आवश्यक माना जाता है। दृष्टि परिशुद्ध होते ही ज्ञान स्वतः ही सम्यक् बन जाता है। ज्ञान को सम्यक् बनाने के लिए अतिरिक्त प्रयल की आवश्यकता नहीं होती है। जैन दर्शन में दृष्टि विशुद्धि को ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है / ज्ञान एवं चारित्र की विशुद्धता उसके ऊपर ही निर्भर रहती है अतः कहा जाता है—चरित्र भ्रष्ट की तो मुक्ति हो सकती है किन्तु दर्शन भ्रष्ट सिद्ध नहीं हो सकता। सन्दर्भ 1. मोक्षे धीनिमन्यत्र विज्ञानं, इत्यमरः। 2. चेतनाचेतनान्यत्वविज्ञानं ज्ञानमुच्यते, ज्ञानस्तु ज्ञानमित्याहुः भगवान् ज्ञान सनिधिः। लिङ्गपुराण पूर्वार्ध, 10/29, 3. एकत्वं बुद्धिमनसोरिन्द्रियाणाञ्च सर्वशः। आत्मनो व्यापिनस्तात ज्ञानमेतदनुत्तमम् / / योगशास्त्र, 4. गीता, 4/38 5. ज्ञानयज्ञः परन्तपः। . गोता, 4/33, सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते। अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धिसात्विकम् // गीता, 18/20, ..