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________________ प्रामाण्य : स्वतः या परतः / 351 प्रामाण्य-अप्रामाण्य की ज्ञप्ति स्वतः-परतः होती है। इसका निमित्त है विषय की परिचित एवं अपरिचित अवस्था। परिचित वस्तुओं के ज्ञान की सत्यता एवं असत्यता का बोध तत्काल हो जाता है क्योंकि वह विषय की अभ्यासजन्य अवस्था है। करतल ज्ञान अथवा स्नान, पान आदि अर्थक्रिया का प्रत्यक्षज्ञान होता है तब प्रत्यक्ष की प्रमाणता का स्वतः निश्चय हो जाता है / प्रेक्षावान् पुरुषों को इस प्रकार के ज्ञान के प्रामाण्य की परीक्षा करने की आवश्यकता नहीं होती। जब किसी अनभ्यस्त वस्तु का प्रत्यक्ष होता है, उस प्रत्यक्ष का पदार्थ के साथ अव्यभिचार निश्चित नहीं होता है / इस स्थिति में उस प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रमाणता अन्य ज्ञान से जानी जाती है / वह दूसरा ज्ञान प्रथम ज्ञान के विषय को जाननेवाले अर्थात् प्रथम ज्ञान का पोषक होता है / अर्थक्रिया के निर्भास के द्वारा अथवा प्रथम ज्ञान द्वारा प्रदर्शित पदार्थ के द्वारा अविनाभावी पदार्थ का दर्शन होने से प्रथम ज्ञान का प्रामाण्य निश्चित होता है तथा प्रथमज्ञान के प्रामाण्य के निश्चायक इन तीनों प्रकार के ज्ञानों का प्रामाण्य स्वतः सिद्ध होने से अनवस्था आदि दोषों की सम्भावना ही नहीं है। अनुमान का प्रामाण्य स्वतः होता है / परतः नहीं होता क्योंकि अनुमान का उत्थान अव्यभिचरित लिङ्ग से होने के कारण उसमें व्यभिचार की सम्भावना ही समाप्त हो जाती है / लिङ्ग का ज्ञान लिङ्ग के बिना नहीं होता और लिङ्ग लिङ्गी के बिना नहीं होता अतः अनुमान का प्रामाण्य स्वतः होता है। आगम प्रमाण जो प्रत्यक्ष अर्थ का प्रतिपादक है उसकी प्रमाणता यदि दुर्जेय हो तो संवादी प्रमाण से वह निश्चित हो जाती तथा आप्तकथित होने से भी उसकी प्रमाणता का निश्चय हो जाता है। जैन को एकान्ततः प्रामाण्य न स्वतः इष्ट है न परतः / इसलिए ही वह एकान्त रूप से प्रामाण्य को स्वतः माननेवाले मीमांसकों का तथा परतः माननेवाले नैयायिक, वैशेषिकों के अभिमत का निराकरण करता है। आचार्य यशोविजयजी ने अपने ज्ञानबिन्दु में इसकी समीक्षा की है तथा प्रमाण के प्रामाण्य के सम्बन्ध में अनेकान्त का अवलम्बन लेकर उसके प्रामाण्य का प्रतिपादन अनेकान्त दृष्टि से किया है। .. हम किसी भी वस्तु की प्रामाणिकता द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के आधार पर ही स्थापित कर सकते हैं। वस्तु-बोध की इन दृष्टियों का अवलम्बन लेने से ही प्रामाण्य की सम्यक् व्याख्या सम्भव है। एक वस्तु के सम्बन्ध में अनेक व्यक्तियों के पृथक विचार हो सकते हैं। चन्द्रमा को एक व्यक्ति पृथ्वी से देख रहा है दूसरा चन्द्रलोक से। उन दोनों व्यक्तियों के ज्ञान का विषय एक ही वस्तु है ।किन्तु दोनों के ज्ञान में
SR No.004411
Book TitleAarhati Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year1998
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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