________________ यहां पर अतीत का प्रयोग किया गया है जो उपयुक्त ही है। सारांश यह है कि चम्पा नगरी? थी, यह भूत कालीन प्रयोग असंगत नहीं है। . "वण्णओ-वर्णकः" इससे सूत्रकार को जो चम्पानगरी का वर्णन ग्रन्थ अभिप्रेत है वह औपपातिक सूत्र में देख लेना चाहिये। सूत्रकार ने मूल पाठ में “वण्णओ" पद का दोबार ग्रहण किया है। उस में प्रथम का चम्पानगरी से सम्बन्धित है और दूसरा पूर्णभद्र चैत्य के वर्णन से सम्बन्ध रखता है। पूर्णभद्र चैत्य का वर्णन औपपातिक सूत्र में विस्तार पूर्वक किया गया है जिज्ञासु को अपनी जिज्ञासा वहां से पूर्ण करनी चाहिए। किसी-किसी प्रति में "वण्णओ" यह द्वितीय पद नहीं है। अर्थात् कहीं-कहीं "पुण्णभद्दे चेइए वण्णओ" इस पाठ के अन्तर्गत जो "वण्णओ" पद है वह नहीं पाया जाता, केवल "पुण्णभद्दे चेइए" इतना उल्लेख देखने में आता है। आर्य सुधर्मा स्वामी का वर्णन करते हुए सूत्रकार ने "जाइसंपण्णे" इत्यादि पदों का उल्लेख किया है। "जाइ संपन्ने"-जातिसम्पन्न" शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं / (1) जिस की माता में मातृजनोचित समस्त गुण विद्यमान हों, (2) जिसका मातृपक्ष विशुद्ध-निर्मल हो। इससे आर्यसुधर्मा स्वामी की जाति (मातृपक्ष) की उत्तमता का निरूपण किया गया है। इसके अतिरिक्त सूत्रगत "वण्णओ-वर्णक" पद से ज्ञाताधर्मकथांग सूत्रगत अन्य पाठ का समावेश करना सूत्रकार का अभिप्रेत.है। वह सूत्र इस प्रकार है. ...... कुलसंपन्ने, बल-रूप विणय-णाण-दंसण-चरित्त-लाघवसंपन्ने, ओयंसी, तेयंसी, वच्चंसी, जसंसी, जियकोहे, जियमाणे,जियमाए, जियलोहे, जियइंदिए, जियनिद्दे, जियपरिसहे जीवियासमरण-भयविप्पमुक्के, तवप्पहाणे गुणप्पहाणे एवं करणचरण-निग्गह-णिच्छय-अजव-मद्दव-लाघव-खंति-गुत्ति-मुत्ति-विज्जामंत-बंभ-वयनय नियम-सच्च-सोय-णाण-दंसण-चरित्ते ओराले घोरे घोरव्वए घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढ-सरीरे संखित्त-विउलतेउल्लेसे .........." "चोद्दसपुव्वी-चतुर्दशपूर्वी" इस पद से सूचित होता है कि आर्य सुधर्मा स्वामी (1) यद्यपि इदानीमप्यस्ति सा नगरी तथाऽप्यवसर्पिणी-कालस्वभावेन हीयमानत्वाद् वस्तुस्वभावानां . वर्णक-ग्रन्थोक्तस्वरूपा सुधर्म-स्वामिकाले नास्तीति कृत्वाऽतीतकालेन निर्देशः कृतः (वृत्तिकारः) (2) छाया-कुलसम्पन्नः बल-रूप-विनय-ज्ञान-दर्शन-चरित्र-लाघवसम्पन्नः ओजस्वी तेजस्वी वचस्वी (वर्चस्वी) यशस्वी जितक्रोधः जितमानः जितमायः जितलोभः जितेन्द्रियः जितनिद्रः जितपरिषहः जीविताशामरणभय-विप्रमुक्तः तपःप्रधानः गुणप्रधानः एवं करणचरणनिग्रह-निश्चया-र्जव-मार्दव-लाघव-क्षान्ति-गुप्ति-मुक्तिविद्यामंत्र-ब्रह्म-व्रत-नय-नियम-सत्य-शौच-ज्ञान-दर्शन चरित्र: उदार: घोर: घोरव्रतः घोरतपस्वी घोरब्रह्मचर्यवासी उज्झितशरीर: संक्षिप्त-विपुलतेजोलेश्यः ....., प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [101