________________ दीक्षा के अनन्तर सुबाहुकुमार को तथारूप स्थविरों के पास शास्त्राध्ययनार्थ छोड़ . दिया गया और श्री सुबाहुकुमार मुनि ने भी अपनी विनय तथा सुशीलता से शीघ्र ही आगमों के अध्ययन में सफलता प्राप्त कर ली, पर्याप्त ज्ञानाभ्यास कर लिया। ज्ञानाभ्यास के पश्चात् सुबाहुकुमार ने तपस्या का आरम्भ किया। उस में वे व्रत, बेला, तेला आदि का अनुष्ठान करने लगे। अधिक क्या कहें-सुबाहुमुनि ने अपने जीवन को तपोमय ही बना डाला। आत्मशुद्धि के लिए तपश्चर्या एक आवश्यक साधन है। तप एक अग्नि है जो आत्मा के कषायमल को भस्मसात् कर देने की शक्ति रखती है। "-तपसा शुद्धिमाप्नोति-". अन्त में एक मास की संलेखना-२९ दिन का संथारा करके आलोचना तथा प्रतिक्रमण करने के अनन्तर समाधिपूर्वक श्री सुबाहु मुनि इस औदारिक शरीर को त्याग कर देवलोक में पधार गए। दूसरे शब्दों में श्री सुबाहुकुमार पर्याप्तरूप से साधुवृत्ति का पालन कर परलोक के यात्री बने और देवलोक में जा विराजे / -चउत्थ० तवोविहाणेहि-यहां दिए गए बिन्दु से-छट्ठट्ठमदसमदुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं-इस अवशिष्ट पाठ का ग्रहण करना चाहिए। इस का अर्थ यह है कि व्रत, बेले, तेले, चौले और पंचौले के तप से तथा 15 दिन, एक महीने की तपस्या से एवं और अनेक प्रकार के तपोमय अनुष्ठानों से। चतुर्थभक्त-इस पद के दो अर्थ उपलब्ध होते हैं, जैसे. किं-१-उपवास, २-जिस दिन उपवास करना हो उस के पहले दिन एक समय खाना और उपवास के दूसरे दिन भी एक समय खाना। इस प्रकार ये दो भक्त-भोजन हुए। दो भक्त उपवास के और दो आगे-पीछे के। इस प्रकार दो दिनों के भक्त मिला कर चार भक्त होते हैं। इन चार भक्तों (भोजनों) का त्याग चतुर्थभक्त कहलाता है। आजकल इस का प्रयोग दो वक्त आहार छोड़ने में होता,है जो कि व्रत के नाम से प्रसिद्ध है। पूर्वसंचित कर्मों के नाश करने वाले अनुष्ठान विशेष की तप संज्ञा है, उस का विधान तपोविधान कहलाता है। श्रामण्य साधुता का नाम है। पर्याय भाव को कहते हैं। श्रामण्यपर्याय का अर्थ होता है-साधुभाव-साधुवृत्ति। संलेखना-जिस तप के द्वारा शरीर तथा क्रोध, मान, माया और लोभ इन कषायों को कृश-निर्बल किया जाता है उसके अनुष्ठान को संलेखना कहते हैं। -अप्पाणं झूसित्ता-आत्मानं जोषयित्वा-यहां झूसित्ता का प्रयोग-आराधित कर के-इस अर्थ में किया गया है। संलेखना से आराधित करने का अर्थ है-संलेखना द्वारा अपने 1. तवेणं भंते ! जीवे किं जणयइ। तवेणं जीवे वोदाणं जणयइ॥२७। (उत्तरा० अ० 29) 2. संलिख्यते कृशी क्रियते शरीरकषायादिकमनयेति संलेखनेति भावः। (वृत्तिकारः). . 948 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध