________________ को मोक्षमार्ग के अनुकूल बनाना। महीने की संलेखना के स्पष्टीकरणार्थ ही मूल में-सर्टि भत्ताई-षष्टिं भक्तानि-इस का उल्लेख किया गया है। अर्थात् महीने की संलेखना का अर्थ है-साठ भक्तों-भोजनों का परित्याग। प्रश्न-सूत्रकार ने -मासियाए संलेहणाए-का उल्लेख करने के बाद-सर्द्वि भत्ताइंइस का उल्लेख क्यों किया ? जब कि उससे ही काम चल सकता था, कारण कि मासिक संलेखना और साठ भक्तों का त्याग-दोनों एक ही अर्थ के बोधक हैं। उत्तर-शास्त्र का कोई भी वचन व्यर्थ नहीं होता, केवल समझने की त्रुटि होती है। प्रत्येक ऋतु में मासगत दिनों की संख्या विभिन्न होती है। तब जिस ऋतु में जिस मास के 29 दिन होते हैं, उस मास के ग्रहण करने की सूचना देने के लिए सूत्रकार ने-मासियाए संलेहणाए-ये पद देकर भी-सर्टि भत्ताइं-ये पद दे दिए हैं जोकि उचित्त ही हैं। क्योंकि 29 दिनों के व्रतों में ही 60 भक्त-भोजन छोड़े जा सकते हैं। -आलोइयपडिक्कन्ते-आलोचितप्रतिक्रान्तः-आत्मा में लगे हुए दोषों को गुरुजनों के समीप निष्कपट भाव से प्रकाशित कर के उन की आज्ञानुसार उन दोषों से पृथक् होने के लिए प्रायश्चित करने वाले को आलोचितप्रतिक्रान्त कहते हैं। इस पद का सविस्तार विवेचन पीछे यथास्थान किया जा चुका है। . समाधि-इस पद का निक्षेप-विवेचन नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से चार प्रकार का " होता है। १-किसी का नाम समाधि रख दिया जाए तो वह नामसमाधि है। २-समाधि नाम वाले व्यक्ति की आकृति-आकार को स्थापना समाधि कहते हैं / ३-मनोज्ञ शब्दादि पञ्चविध विषयों की सम्प्राप्ति पर श्रोत्रादि इन्द्रियों की जो तुष्टि होती है, उस का नाम द्रव्यसमाधि है। अथवा-दूध और शक्कर के मिलाने से रस की जो पुष्टि होती है उसे, अथवा-किसी द्रव्य के सेवन से जो शान्ति उपलब्ध होती है उसे द्रव्यसमाधि कहते हैं / अथवा-यदि तुला के ऊपर किसी वस्तु को चढ़ाने से दोनों भाग सम हो जाएं उसे द्रव्यसमाधि कहते हैं। जिस जीव को जिस क्षेत्र में रहने से शान्ति उपलब्ध होती है, वह क्षेत्र की प्रधानता के कारण क्षेत्रसमाधि कहलाती है। जिस जीव को जिस काल में शान्ति मिलती है, वह शान्ति उस के लिए कालसमाधि है। जैसे-शरद् ऋतु में गौ को, रात्रि में उल्लू को और दिन में काक को शान्ति प्राप्त होती है, वह शान्तिकाल की प्रधानता के कारण काल समाधि कही जाती है। ४भावसमाधि-भावसमाधि दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन भेदों से चार प्रकार की कही गई है। १-जिस गुण-शक्ति के विकास से तत्त्व-सत्य की प्रतीति हो, अथवा जिस से छोड़ने और ग्रहण करने योग्य तत्त्व के यथार्थ विवेक की अभिरुचि हो, वह दर्शन भावसमाधि है। 2 द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [949