________________ सुबाहुकुमार वरदत्तकुमार १-जन्मभूमि-हस्तिशीर्ष। १-जन्मभूमि-साकेत। २-उद्यान-पुष्पकरंडक। २-उद्यान-उत्तरकुरु। ३-यक्षायतन-कृतवनमालप्रिय। ३-यक्षायतन-पाशामृग। ४-पिता-अदीनशत्रु। ४-पिता-मित्रनन्दी। ५-माता-धारिणी देवी। ५-माता-श्रीकान्तादेवी। .६-प्रधानपत्नी-पुष्पचूला। ६-प्रधानपत्नी-वरसेना। ७-पूर्वभव का नाम-सुमुख गाथापति। ७-पूर्वभव का नाम-विमलवाहन नरेश। ८-जन्मभूमि-हस्तिनापुर। ८-जन्मभूमि-शतद्वार नगर। ९-प्रतिलाभित अनगार-श्री सुदत्त। ९-प्रतिलाभित अनगार-श्री धर्मरुचि। इस के अतिरिक्त दोनों की धार्मिक चर्या में कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही राजकुमार थे। दोनों का ऐश्वर्य समान था। दोनों में श्रमण भगवान् महावीर की धर्मदेशना के श्रवण से धर्माभिरुचि उत्पन्न हुई थी। दोनों ने प्रथम श्रावकधर्म के नियमों को ग्रहण किया और भगवान् के विहार कर जाने के अनन्तर पौषधशाला में पौषधोपवास किया तथा भगवान् के पास दीक्षित होने वालों को पुण्यशाली बताया एवं भगवान् के पुनः पधारने पर मुनिधर्म में दीक्षित होने का संकल्प भी दोनों का समान है। तदनन्तर संयमव्रत का पालन करते हुए मनुष्य भव से देवलोक और देवलोक से मनुष्यभव, इस प्रकार समान रूप से गमनागमन करते हुए अन्त में महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर और वहां पर चारित्र की सम्यग् आराधना से कर्मरहित हो कर मोक्षगमन भी दोनों का समान ही होगा। ऐसी परिस्थिति में दूसरे अध्ययन से लेकर दसवें अध्ययन के अर्थ को यदि प्रथम अध्ययन के अर्थ का संक्षेप कह दिया जाए तो कुछ अनुचित न होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो इस अध्ययन में प्रथम अध्ययन के अर्थ को ही प्रकारान्तर या नामान्तर से अनेक बार दोहराया गया है, ताकि मुमुक्षु जनों को दानधर्म और चारित्रधर्म में विशेष अभिरुचि उत्पन्न हो तथा वे उन का सम्यग्रुप से आचरण करते हुए अपने ध्येय को प्राप्त कर सकें। प्रश्न-सेसं जहा सुबाहुस्स-इतने कथन से वरदत्त के अवशिष्ट जीवनवृत्तान्त का बोध हो सकता था, फिर आगे सूत्रकार ने जो-चिन्ता जाव पव्वज्जा-आदि पद दिये हैं, इन का क्या प्रयोजन है, अर्थात् इन के देने में क्या तात्पर्य रहा हुआ है ? उत्तर-सेसं-इत्यादि पदों से काम तो चल सकता था, पर सूत्रकार द्वारा-जहायथा-शब्द से-यत्तदोः नित्यसम्बन्धः-इस न्याय से सम्प्राप्त तहा शब्द से जिन पाठों अथवा जिन बातों का ग्रहण करना अभिमत है, उन के स्पष्टीकरणार्थ ही इन-चिन्ता-आदि पदों का द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [993