________________ ग्रहण किया गया है। इस में उस समय की लेखनप्रणाली या प्रतिपादनशैली ही कारण कही या . मानी जा सकती है। -सावगधम्म चिन्ता जाव पव्वजा-इत्यादि संक्षिप्त पाठों में मूलपाठगत आदि और अन्त के मध्यवर्ती पाठों के ग्रहण की ओर संकेत किया गया है। सूत्रकार की यह शैली रही है कि एक स्थान पर समग्र पाठ का उल्लेख करके अन्यत्र उसके उल्लेख की आवश्यकता होने पर समग्र पाठ का उल्लेख न करके आरम्भ के पद के साथ जाव-यावत् पद दे कर अन्त के पद का उल्लेख कर देना, जिस से कि मध्यवर्ती पदों का संग्रह करना सूचित हो सके। इसी शैली का आगमों में प्रायः सर्वत्र अनुसरण किया गया है। -सावगधम्म-यहां के बिन्दु से द्वितीय श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन में पढ़े गएपडिवज्जइ 2 त्ता तमेव रहं-इत्यादि पद का तथा-चिन्ता जाव पव्वजा-यहां पठित जावयावत् पद द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में पढ़े गये-धन्ने णं ते गामागर जाव सन्निवेसा-इत्यादि पदों का तथा-तओ जाव सव्वट्ठसिद्धे-यहां पठित जाव-यावत् पद से द्वितीय श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन में ही पढ़े गए-देवलोयाओ आउक्खएणं भवक्खएणंइत्यादि पदों का संसूचक है। -दढपइण्णे जाव सिज्झिहिइ-यहां पठित जाव-यावत् पद-औपपातिक सूत्र में वर्णित दृढ़प्रतिज्ञ के जीवन के वर्णक पाठ की ओर संकेत करता है। दृढ़प्रतिज्ञ का जीवनवृत्तान्त पीछे लिखा जा चुका है। तथा-सिज्झिहिइ ५-यहां के अंक से भी अभिमत पाठ तथा महावीरेणं जाव संपत्तेणं-यहां पठित जाव-यावत् पद से अभिमत-आइगरेणं-इत्यादि पाठ पीछे पृष्ठों पर वर्णित हो चुका है। -सेवं भंते ! सेवं भंते ! सुहविवागा-इन पदों से जम्बू स्वामी की विनयसम्पत्ति और श्रद्धा-संभार का परिचय मिलता है। गुरुजनों के मुखारविन्द से सुने हुए निर्ग्रन्थप्रवचन पर शिष्य की कितनी आस्था होनी चाहिए, यह इन पदों से स्पष्ट भासमान हो रहा है। जम्बू स्वामी कहते हैं कि हे भगवन् ! आपने जो कुछ फरमाया है, वह सर्वथा-अक्षरशः यथार्थ है, असंदिग्ध है, सत्य है। विपाकश्रुत के सुखविपाक नामक द्वितीयश्रुतस्कन्ध के दश अध्ययनों में भिन्न-भिन्न धार्मिक व्यक्तियों के जीवनवृत्तान्तों के वर्णन में एक ही बात की बार-बार पुष्टि की गई है। सुपात्रदान और संयमव्रत का सम्यग् आराधन मानवजीवन के आध्यात्मिक विकास में कितना उपयोगी है और उस के आचरण से मनुष्य अपने साध्य को कैसे सिद्ध कर लेता है, इस विषय . का इन अध्ययनों में पर्याप्त स्पष्टीकरण मिलता है। विकासगामी साधक के लिए इस में 994 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंध