Book Title: Vipak Sutram
Author(s): Gyanmuni, Shivmuni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 1009
________________ अनुष्ठान अपेक्षित रहता है। इसी बात को संसूचित करने के लिए सूत्रकार ने विपाकसूत्र के अन्त में-सेसं जहा आयारस्स-इन पदों का संकलन किया है। अर्थात् विपाकसूत्र के सम्बन्ध में अवशिष्ट उपधान तप का वर्णन आचारांग सूत्र के वर्णन के समान जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि आचाराङ्गसूत्रगत उपधानतप तपोदृष्ट्या समान है। जैसे आचारांग सूत्र के लिए उपधानतप निश्चित है वैसे ही विपाकसूत्र के लिए भी है, फिर भले ही वह भिन्न-भिन्न दिनों में सम्पन्न होता हो। दिनगत भिन्नता ऊपर बताई जा चुकी है। किसी-किसी प्रति में ग्रंथानं-१२५०, ऐसा उल्लेख देखा जाता है। यह पुरातन शैली है। उसी के अनुसार यहां भी उस को स्थान दिया गया है। ग्रंथ के अग्र को ग्रन्थान कहते हैं। ग्रन्थ का अर्थ स्पष्ट है, और अग्र नाम परिमाण का है। तब ग्रंथ-शास्त्र का अग्र-परिमाण ग्रंथाग्र कहलाता है। तात्पर्य यह है कि ग्रन्थगत गाथा या श्लोक आदि का परिमाण का सूचक ग्रंथान शब्द है। प्रस्तुत सूत्र का परिमाण 1250 लिखा है, अर्थात् गद्यरूप में लिखे गए विपाकश्रुत का यदि पद्यात्मक परिमाण किया जाए तो उसकी संख्या 1250 होती हैं। परन्तु यह कहां तक ठीक है, यह विचारणीय है। क्योंकि वर्तमान में उपलब्ध विपाकसूत्र की सभी प्रतियों में प्रायः पाठगत भिन्नता सुचारुरूपेण उपलब्ध होती है, फिर भले ही वह आंशिक ही क्यों न हो। उपलब्ध अंगसूत्रों में विपाकसूत्र का अन्तिम स्थान है तथा आप्तोपदिष्ट होने से इस की प्रामाणिकता पर भी किसी प्रकार के सन्देह को अवकाश नहीं रहता। तथा इस निग्रंथप्रवचन से जो शिक्षा प्राप्त होती है उस का प्रथम ही भिन्न-भिन्न स्थानों पर अनेक बार उल्लेख कर दिया गया है और अब इतना ही निवेदन करना है कि मानवभव को प्राप्त कर जीवनप्रदेश में अशुभकर्मों के अनुष्ठान से सदा पराङ्मुख रहना और शुभकर्मों के अनुष्ठान में सदा उद्यत रहना, यही इस निर्ग्रन्थप्रवचन से प्राप्त होने वाली शिक्षाओं का सार है। अन्त में हम अपने सहृदय पाठकों से पूज्य अभयदेवसूरि के वचनों में अपने हार्द को अभिव्यक्त करते हुए विदा लेते हैं इहानुयोगे यदयुक्तमुक्तं, तद्धीधनाः द्राक् परिशोधयन्तु। नोपेक्षणं युक्तिमदन येन, जिनागमे भक्तिपरायणानाम्॥१॥ ॥श्री विपाकसूत्र समाप्त॥ 1. अर्थात् आचार्य श्री अभयदेवसूरि का कहना है कि मेरी इस व्याख्या में जो अयुक्त-युक्तिरहित कहा . गया है, जैनागमों की भक्ति में परायण-लीन मेधावी पुरुषों को उस का शीघ्र ही संशोधन कर लेना चाहिए, क्योंकि व्याख्यागत अयुक्त-युक्तिशून्य स्थलों की उपेक्षा करनी योग्य नहीं है। 1000] श्री विपाक सूत्रम् / उपसंहार [द्वितीय श्रुतस्कंध

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