________________ जाती है। तथा सुबाहकुमार के जीवन से यह भी स्पष्ट होता है कि सुबाहुकुमार का अध्ययन किसी अन्य गणधर की देख-रेख में निष्पन्न हुआ और उस ने उस की वाचना के ही एकादश अंग पढ़े, उन का अर्थ सुधर्मा स्वामी की वाचना से भिन्न था। अतः सुबाहुकुमार ने जो विपाक पढ़ा वह भी अन्य था जो कि दुर्भाग्यवश अनुपलब्ध है। आचार्यप्रवर अभयदेवसूरि ने भगवतीसूत्र की व्याख्या में स्कन्दककुमार के विषय से सम्बन्ध रखने वाले विचारों का जो प्रदर्शन किया है वह मननीय एवं प्रकृत में उपयोगी होने से नीचे दिया जाता है नन्वनेन स्कन्दकचरितात् प्रागेवैकादशांगनिष्पत्तिरवसीयते पंचमांगान्तर्भूतं च स्कन्दकचरितमुपलभ्यते, इति कथं न विरोधः ? उच्यते-श्रीमन्महावीरतीर्थे किल नव वाचना, तत्र च सर्ववाचनासु स्कन्दकचरितात् पूर्वकाले ये स्कन्दकचरिताभिधेया अर्थास्ते चरितान्तरद्वारेण प्रज्ञाप्यन्ते। स्कन्दकचरितोत्पत्तौ च सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानं स्वशिष्यमंगीकृत्याधिकृतवाचनायामस्यां स्कन्दकचरितमेवाश्रित्य तदर्थं प्ररूपणा कृतेति न विरोधः। अथवा सातिशायित्वाद् गणधराणामनागतकालभाविचरितनिबन्धनमदुष्टमिति, भाविशिष्यसन्तानापेक्षया, अतीतकालनिर्देषोऽपि न दुष्ट इति। (भगवती सूत्र शतक 2, उद्दे० 1, सू० 93). अर्थात्-प्रस्तुत में यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि स्कन्दक चरित से पहले ही एकादश अंगों का निर्माण हो चुका था। स्कन्दकचरित्र पंचम अंग (भगवती सूत्र) में संकलित किया गया है। तब स्कन्दक ने 11 अंग पढ़े, इस का क्या अर्थ हुआ? क्या उस ने अपना ही जीवन पढ़ा ? इस का उत्तर निम्नोक्त है भगवान् महावीर के तीर्थ-शासन में नौ वाचनाएं थीं। प्रत्येक वाचना में स्कन्दक के जीवन का अभिधेय-अर्थ (शिक्षारूप प्रयोजन) समान रूप से अवस्थित रहता था। अन्तर इतना होता था कि जीवन के नायक तथा नायक के साथी भिन्न होते थे। सारांश यह है कि जो शिक्षा स्कन्दक के जीवन में मिलती थी, उसी शिक्षा को देने वाले अन्य जीवनों का संकलन सर्ववाचनाओं में मिलता था। सुधर्मा स्वामी ने अपने शिष्य जम्बू स्वामी को लक्ष्य बना कर अपनी इस वाचना में स्कन्दक के जीवन से ही उस अर्थ की प्ररूपणा कर डाली, जो अर्थ अन्य वाचनाओं में गर्भित था। अत: यह स्पष्ट है कि स्कन्दक ने जो अंगादि शास्त्र पढ़े थे वे सुधर्मा स्वामी की वाचना में नहीं थे। अथवा दूसरी बात यह भी हो सकती है कि श्री गणधर महाराज अतिशय अर्थात् ज्ञानविशेष के धारक होते थे। इसलिए उन्होंने अनागत काल में होने वाले चरित्रों का संकलन कर दिया। इस के अतिरिक्त अनागत शिष्यवर्ग की अपेक्षा से अतीत काल का निर्देश भी दोषावह नहीं है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [947