________________ नाम की। देवी-देवी थी। बेसमणो-बै श्रमण नाम का। कुमार-कुमार। जुवरापा-युवराज था। सिरीदेवीपामोक्वाण-श्रीदेवीप्रमुख / पंचसपाण-पांच सौ। रापवरकनगाण-श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ। पाणिग्गहणं-पाणिग्रहण हुआ। तित्थगरागमण-तीर्थकर भगवान का आगमन हुआ। धणवा-धनपति / गुवरापपुस-युवराजपुत्र वहां उपस्थित हुआ। जाव-यावत्। पुष्वभवे-पूर्वभव की पृच्छा की गई। मणिपापा-मणिचयिका। णगरी-नगरी थी। मिते-मित्र / रापा-राजा था। संभूपविजए-संभूतविजय। अणगारे-अनगार / पहिलाभिए-प्रतिलाभित किए। जाव-पावत्। सिद्ध-सिद्ध हुए। निक्खेबो-निक्षेपउपसंहार की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिए। f-छठा / अापण-अध्ययन / समत-सम्पूर्ण हुआ। ___ मूलार्थ-छठे अध्ययन का उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् जानना चाहिए।हे जम्बू / कनकपुर नाम का नगर था। वहां श्वेताशोक उद्यान था और उस में वीरभद्र नाम के पक्ष का मन्दिर था। वहां महाराज प्रिपचन्द्र का राज्य था, उस की रानी का नाम सुभद्रा देवी था, पुवराजपदालंकृत कुमार का नाम वैश्रमण था, उस ने श्रीदेवीप्रमुख 500 श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ विवाह किया। उस समय तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी पधारे। पुवराज के पुत्र धनपतिकुमार ने भगवान् से भावक के व्रतों को ग्रहण किया। पूर्वभव की पृच्छा की गई। धनपतिकुमार पूर्वभव में मणिपिका नगरी का राणा था, उस का माम मित्र था। उसने श्री संभूतविजय नाम के मुनिराजको आहार से प्रतिलाभित किया। पावत् इसी जन्म में वह सिद्धगति को प्राप्त हुआ। निक्षेप की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिए। ॥छठा अध्याय समाप्त॥ ॥हाभार - टीका-प्रस्तुत अध्ययन में धनपतिकुमार का जीवनवृत्तान्त अंकित किया गया है। उस ने भी सुबाहुकुमार की तरह पूर्वभव में सुपात्रदान से मनुष्यायु का बन्ध किया, तथा तीर्थकर * भगवान् महावीर स्वामी से श्रावकधर्म और तदनन्तर मुनिधर्म की दीक्षा ले कर संयम के सम्यग् आराधन से कर्मबन्धनों को तोड़ कर निर्वाणपद प्राप्त किया। इस भव तथा पूर्वभव में नामादि की भिन्नता के साथ-साथ सुबाहुकुमार और धनपति कुमार के जीवन-वृत्तान्त में केवल इतना ही अन्तर है कि सुबाहुकुमार तो देवलोकों में जाता हुआ और मनुष्यभव को प्राप्त करता हुआ अन्त में महाविदेह क्षेत्र में सिद्धपद प्राप्त करेगा जब कि धनपतिकुमार ने इसी जन्म में कर्मों के बन्धनों को तोड़ कर निर्वाणपद प्राप्त किया और बह सिद्ध बन गया। मूल में पढ़ा गया उत्क्षेप पद-जाणे भते / समणेण भगवपा महावीरण जाब संपत्तेणे सुहषिबागाणं पंचमस्स अापणस अपना पण्णते, णमण भते | समणेणे वित्तीय श्रुतस्कंध] श्री विधाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [177