________________ करने में पुण्यरूप नामकर्म की देवगति प्रकृति कारण होती है। उस प्रकृति के कर्मदलिकों का नाश भवनाश कहलाता है। स्थिति शब्द से आयुष्कर्म के दलिकों की अवस्थानमर्यादा का ग्रहण है। अर्थात् आयुष्कर्म के दलिक जितने समय तक आत्मप्रदेशों से संबन्धित रहते हैं उस काल का स्थिति शब्द से ग्रहण किया जाता है। उस काल (स्थिति) का नाश स्थितिनाश कहा जाता है। यही इन तीनों में भेद है। -अणंतरं-कोई जीव पुरातन दुष्ट कर्मों के प्रभाव से नरक में जा उत्पन्न हुआ, वहां की दुःख-यातनाओं को भोग कर तिर्यञ्च योनि में उत्पन्न हुआ, वहां की स्थिति को पूरी कर फिर मनुष्यगति में आया, उस जीव का मनुष्यभव को धारण करना सान्तर-अन्तरसहित है। एक ऐसा जीव है जो नरक से निकल कर सीधा मानव शरीर को धारण कर लेता है, उस का मानव बनना अनन्तर-अन्तररहित कहलाता है। सुबाहुकुमार की देवलोक से मनुष्यभवगत अनन्तरता को सूचित करने के लिए सूत्रकार ने "अणन्तरं" यह पद दिया है, जो कि उपयुक्त . ही है। भगवतीसूत्र में लिखा है कि ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना (दर्शन-सम्यक्त्व की आराधना) और शंका, कांक्षा आदि दोषों से रहित होकर आचार का पालन करने वाला व्यक्ति कम से कम तीन भव करता है, अधिक से अधिक 15 भव-जन्म धारण करता है। 15 भवों के अनन्तर वह अवश्य निष्कर्म-कर्मरहित हो जाएगा। सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त कर डालेगा। ऐसा शास्त्रीय सिद्धान्त है। इस सिद्धान्तसम्मत वचन से यह सिद्ध हो जाता है कि सुबाहुकुमार ने सुमुख गाथापति के भव में सुदत्त नामक एक अनगार को दान देकर जघन्य ज्ञानाराधना तथा दर्शनाराधना का सम्पादन किया, उसी के फलस्वरूप वह पन्द्रहवें भव में महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न हो जाएगा। यह उस का अन्तिम भव है। इस के अनन्तर वह जन्म धारण नहीं करेगा। देवलोकों का संख्याबद्ध वर्णन पहले किया जा चुका है। सर्वार्थसिद्ध से च्युत हो कर सुबाहुकुमार का महाविदेह क्षेत्र में जन्म ले कर सिद्धगति को प्राप्त होना, यह महाविदेह क्षेत्र की विशिष्टता सूचित करता है। महाविदेह कर्मभूमियों का क्षेत्र है। इस में चौथे आरे जैसा अवस्थित काल है। महाविदेह क्षेत्र में जन्म ले कर सुबाहुकुमार ने क्या किया, जिस से कि वह सर्व कर्मों से रहित होकर मोक्ष को प्राप्त हुआ, इस सम्बन्ध में कुछ भी न कहते हुए सूत्रकार 1. आराधना-निरतिचारतपानुपालना। (वृत्तिकारः) 2. जहन्निए णं भंते ! नाणाराहणं आराहेत्ता कइहिं भवग्गहणेहि सिज्झइ जाव अंतं करेइ ? गोयमा! अत्थेगइए तच्चेणं भवग्गहणे सिज्झइ जाव अंतं करेइ। सत्तट्ठभवग्गहणाई पुण नाइक्कमइ।एवं दंसणाराहणं पि एवं चरित्ताराहणं पि। (भग० श० 6, उ० 1, सू० 311) 952 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध