________________ अह तइयं अज्झयणं अथ तृतीय अध्याय दान पद का निर्माण दो व्यञ्जनों और दो स्वरों के समुदाय से हुआ है। यह छोटा सा पद बड़े विशद और गम्भीर अर्थ से गर्भित एवं ओतप्रोत है। इस अर्थ को जीवन में लाने वाला व्यक्ति दानी कहलाता है। कोई-कोई व्यक्ति अपनी सेवा या प्रशंसा के उद्देश्य से भी दान देते हैं, परन्तु इस भावना से किया गया दान, दान के महत्त्व से शून्य होता है। वास्तविक दान में तो किसी भी ऐहिक स्वार्थ को स्थान नहीं होता। उस में तो नितान्त शुद्धि की आवश्यकता रहती है। दान देने वाला, दान लेने वाला और देय वस्तु, ये तीनों जहां शुद्ध हों, निर्दोष हों, किसी भी प्रकार के स्वार्थ से रहित हों, वहीं पर किया गया दान सफल होता है। प्रस्तुत तीसरे अध्ययन में भी ऐसी ही दानप्रणाली का वर्णन करने के लिए श्रद्धाशील, दानी व्यक्ति श्री सुजातकुमार का जीवन संगृहीत हुआ है, जिस का विवेचन निम्नोक्त है- . . मूल-तच्चस्स उक्खेवो।वीरपुर नगरं।मणोरमं उज्जाणं।वीरकण्हमित्ते राया। सिरी देवी। सुजाए कुमारे। बलसिरीपामोक्खाणं पञ्चसयकन्नगाणं पाणिग्गहणं। सामी समोसरिए। पुव्वभवपुच्छा। उसुयारे णगरे। उसभदत्ते गाहावइ। पुष्फदत्ते अणगारे पडिलाभिए। माणुस्साउए निबद्धे। इहं उप्पन्ने जाव महाविदेहे सिज्झिहिइ ५।निक्खेवो। तइयं अज्झयणं समत्तं॥ छाया-तृतीयस्योत्क्षेपः। वीरपुरं नगरम्। मनोरममुद्यानम्। वीरकृष्णमित्रो राजा। श्रीदेवी। सुजातः कुमारः। बलश्रीप्रमुखाणां पञ्चशतकन्यकानां पाणिग्रहणम्। स्वामी समवसृतः। पूर्वभवपृच्छा / इक्षुकारं नगरम्। ऋषभदत्तो गाथापतिः। पुष्पदत्तोऽनगारः प्रतिलाभितः / मनुष्यायुर्निबद्धम् / इहोत्पन्नो यावत् महाविदेहे सेत्स्यति 5 / निक्षेपः। 964 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [द्वितीय श्रृंतस्कंध