________________ ऐसे जघन्य कामों में पूरे एक हजार वर्ष व्यतीत किए। इस भयंकरातिभयंकर अपराध के कारण उसे तीसरी नरक में जाना पड़ा। तीसरी नरक की उत्कृष्ट स्थिति सात 'सागरोपम की है, अर्थात् स्वकृत कर्मों के अनुसार उस में गया हुआ जीव अधिक से अधिक सात सागरोपम काल तक रहता है। इसलिए विचारशील पुरुष को पापकर्म से पृथक् रहने का ही सदा भरसक प्रयत्न करना चाहिए। "दिण्णभतिभत्तवेयणा" इस समस्त पद की व्याख्या करते हुए आचार्य अभयदेव सूरि लिखते हैं-"-दत्तं भूतिभक्तरूपं वेतनं मूल्यं येषां ते तथा, तत्र भृतिः-द्रम्मादिवर्तना, भक्तं तु घृतकणादि-" अर्थात् वेतन शब्द से उस द्रव्य का ग्रहण होता है जो किसी को कोई काम के बदले में दिया जाए। भृति शब्द रुपए पैसे आदि का परिचायक है तथा भक्त शब्द घृत, धान्य आदि के लिए प्रयुक्त होता है। तात्पर्य यह है कि-निर्णय नामक अंडों के व्यापारी ने जिन नौकरों को रखा हुआ था, उन में से किन्हीं को वह वेतन के उपलक्ष्य में रुपया, पैसा आदि दिया करता था और किन्हीं को घृत, गेहूं आदि धान्य दिया करता था। प्रतिदिन का दूसरा नाम कल्याकल्यि है। कल्ये कल्ये च कल्याकल्यि अनुदिनमित्यर्थः। तथा जमीन खोदने वाला शस्त्रविशेष कुद्दालक कहलाता है। बांसों की बनी हुई पिटारी या टोकरी का नाम पत्थिकापिटक है। अथवा पत्थिका टोकरी और पिटक थैले का नाम है। __इसके अतिरिक्त "तवएसु" आदि पदों की तथा "तलेंति" आदि पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में इस प्रकार है ___ "तवएसु य"- त्ति तवकानि-सुकुमारिकादितलनभाजनानि / “कवल्लीसु य"-त्ति कवल्यो-गुडादिपाकभाजनानि / "कंदूसुय"-त्ति कन्दवो मंडकादिपचनभाजनानि "भजणएसु य" त्ति भर्जनकानि कर्पराणि धानापाकभाजनानि, अंगाराश्च प्रतीताः, "तलेंति" अग्नौ, स्नेहेन, "भज्जेंति" भृज्जन्ति धान्यवत् पचन्ति; "सोल्लिति य" ओदनमिव राध्यन्ति, खंडशो वा कुर्वन्ति / इस पाठ का भावार्थ निम्नोक्त है सुकुमारिका-पूड़ा पकाने का लोहमय भाजन-पात्र तवा कहलाता है। गुड़, शर्करा आदि पकाने का पात्र कवल्ली कहा जाता है, हिन्दी भाषा में इसे कड़ाहा कहते हैं। कन्दु उस पात्र का नाम है जिस पर रोटी पकाई जाती है। भूनने का पात्र कड़ाही आदि भर्जनक कहा जाता है। दहकते हुए कोयले के लिए अंगार शब्द प्रयुक्त होता है। ___ अर्द्धमागधी कोषकार कन्दु शब्द के-लोहे का एक बर्तन, चने आदि भूनने की 1. सागरोपम- शब्द का अर्थ पीछे लिखा जा चुका है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [363