________________ विशिष्ट तप के आराधन की शक्ति नहीं है तो उस से कम भी तप किया जा सकता है, परन्तु इतना ध्यान रहे कि यदि शक्ति है तो उस का धर्मपालन में अधिकाधिक सदुपयोग कर अपना आत्मश्रेय अवश्य साधना चाहिए, उसे छुपाना नहीं चाहिए। ३-प्रस्तुत कथासन्दर्भ में सब से अधिक आकर्षक तो भगवान् का वह कथन है जो कि उन्होंने सुबाहुकुमार को श्रावकधर्म में दीक्षित होने की इच्छा प्रकट करने के सम्बन्ध में किया है। सुबाहुकुमार को उत्तर देते हुए भगवान् कहते हैं "-अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह-" अर्थात् हे भद्र ! जैसे तुम को सुख हो वैसा करो, परन्तु इस में विलम्ब मत करो। भगवान् के इस उत्तर में दो बातें बड़ी मौलिक हैं १-धर्म के ग्रहण में पूरी-पूरी मानसिक स्वतन्त्रता अपेक्षित है, उस के बिना ग्रहण किया हुआ धर्म आत्मप्रगति में सहायक होने के स्थान में उस की अवनति का साधक भी बन जाता है। जो वस्तु इच्छापूर्वक ग्रहण की जाए, ग्रहणकर्ता को उसके संरक्षण का जितना ध्यान रहता है उतना अनिच्छया (किसी प्रकार के दवाब से) गृहीत वस्तु के लिए नहीं होता। सम्भवतः इसीलिए ही जैन शास्त्रों में उपदेशक मुनिराजों के लिए उपदेश तक सीमित रहने और आदेश न देने की मर्यादा रखी गई है। १अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत्। गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत्॥१॥ इस अभियुक्तोक्ति के अनुसार मृत्यु को हर समय सन्मुख रखते हुए अविलम्बरूप से धर्म के आराधन में लग जाना चाहिए। जो मानव व्यक्ति यह सोचते हैं कि अभी तो विषयभोगों के उपभोग करने की अवस्था है, जब कुछ बूढ़े होने लगेंगे, उस समय धर्म का आराधन कर लेंगे, वे बड़ी भूल करते हैं। मृत्यु का कोई भरोसा नहीं, कल सूर्य को उदय होते देखेंगे कि नहीं, इस का कोई निश्चय नहीं है। प्रतिदिन ऐसी अनेक घटनाएं दृष्टिगोचर होती हैं, जिन से मानव शरीर की विनश्वरता और क्षणभङ्गरता निस्संदेह प्रमाणित हो जाती है। इसी दृष्टि से भगवान् ने सुबाहुकुमार को धर्माराधन में विलम्ब न करने का उपदेश दिया प्रतीत होता है। भगवान् के उक्त कथन में ये दोनों बातें इतनी अधिक मूल्यवान हैं कि इन को हृदय में निहित करने से मानव में विचारसंकीर्णता को कोई स्थान नहीं रहता। ऊपर अनगारधर्म और सागारधर्म का उल्लेख किया गया है। अनगार-साधु का 1. मैं अजर हूं, मैं अमर हूँ, ऐसा समझ कर तो मनुष्य विद्या और धन का उपार्जन करे और मृत्यु ने मेरे को केशों से पकड़ कर अभी पटका कि अभी पटका, ऐसा जान कर मनुष्य धर्म का आचरण करे। तात्पर्य यह है कि धर्माचरण में विलम्ब नहीं करना चाहिए। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [817