________________ हो कर बड़े नम्रभाव से बोला-भगवन् ! आप श्री जी का प्रवचन मुझे अत्यन्त प्रिय और यथार्थ लगा, मेरी इच्छा है कि मैं आपश्री के चरणों में मुण्डित हो कर प्रव्रजित हो जाऊं, संयम व्रत को ग्रहण कर लूं। माता तथा पिता से पूछना शेष है, अत: उन से पूछ कर मैं अभी उपस्थित होता हूँ। इस के उत्तर में भगवान् ने-जैसे तुम को सुख हो, विलम्ब मत करो-इस प्रकार कहा। यह सुन कर मेघकुमार जिस रथ पर चढ़ कर आया था उस पर सवार होकर घर पहुंचा और माता-पिता को प्रणाम करके इस प्रकार कहने लगा .. मैंने आज भगवान् महावीर स्वामी के उपदेशामृत का खूब पान किया। उस से मुझे जो आनन्द प्राप्त हुआ वह वर्णन में नहीं आ सकता। उपदेश तो अनेकों बार सुने परन्तु पहले कभी हृदय इतना प्रभावित नहीं हुआ, जितना कि आज हो रहा है। मां ! भगवान् के चरणों में आज मैंने जो उपदेश सुना है, उस का मेरे हृदयपट पर जो पावन चित्र अंकित हुआ है उसे मैं ही देख सकता हूँ, दूसरे को दिखलाना मेरे लिए अशक्य है। पुत्र के इन वचनों को सुन कर महारानी धारिणी बोली-पुत्र ! तू बड़ा भाग्यशाली है जो कि तूने श्रमण भगवान् महावीर की वाणी को सुना और उस में तेरी अभिरुचि उत्पन्न हुई। इस प्रकार के धर्माचार्यों से धर्म का श्रवण करना और उसे जीवन में उतारने का प्रयत्न करना किसी भाग्यशाली का ही काम हो सकता है। भाग्यहीन व्यक्ति को ऐसा पुनीत अवसर प्राप्त नहीं होता। इसलिए पुत्र ! तू सचमुच ही भाग्यशाली है। मां ! मेरी इच्छा है कि मैं भगवान् के चरणों में उपस्थित हो कर दीक्षा ग्रहण कर लूं। मेघकुमार ने बड़ी नम्रता से माता के सामने अपना मनोभाव व्यक्त किया और स्वीकृति मांगी। अपने प्रिय पुत्र मेघकुमार की यह बात सुनकर महारानी अवाक् सी रह गई। उसे क्या खबर थी कि उस के पुत्र के हृदयपट को श्रमण भगवान् महावीर की धर्मदेशना ने अपने * वैराग्यरंग से सर्वथा रंजित कर दिया है और अब उस पर मोह के रंग का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता, उसे मेघकुमार के उक्त विचार से पुत्रवियोगजन्य कल्पना मात्र से बहुत दुःख हुआ। - माता-पिता अपनी विवाह के योग्य पुत्री का विवाह अपनी इच्छा से करते हैं, तब भी विदाई के समय उन्हें मातृपितृस्नेह व्यथित कर ही देता है। इसी प्रकार मेघकुमार की धर्मपरायणा माता धारिणी देवी, दीक्षा को सर्वश्रेष्ठ मानती हुई भी तथा साधुजनों की संगति और संयम को आदर्श रूप समझती हुई भी मेघकुमार के मुख से दीक्षित होने का विचार सुन उस के हृदय को पुत्र की ममता ने हर प्रकार से व्यथित कर दिया। वह बेसुध हो कर पृथ्वी पर गिर पड़ी। जब दास-दासियों के उपचार से वह कुछ सचेत हुई तो स्नेहपूर्ण हृदय से मेघकुमार को सम्बोधित करती हुई इस प्रकार बोली द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [925