________________ तक की चर्या को उपमित किया गया है। तात्पर्य यह है कि जिस तरह मेघकुमार के हृदय में दीक्षा लेने के भाव उत्पन्न हुए तथा माता-पिता से आज्ञा प्राप्त करने का उद्योग किया और माता-पिता ने परीक्षा लेने के अनन्तर उन्हें सहर्ष आज्ञा प्रदान की और अपने हाथ से समारोहपूर्वक निष्क्रमणाभिषेक करके उन्हें भगवान् को समर्पित किया उसी तरह श्री सुबाहुकुमार के विषय में जान लेना चाहिए। यहां पर केवल नामों का अन्तर है। शेष वृत्त यथावत् है। मेघकुमार के पिता का नाम श्रेणिक है और सुबाहुकुमार के पिता का नाम अदीनशत्रु है। दोनों की माताएं एक नाम की थीं। मेघकुमार राजगृह नगर में पला और उस ने गुणशिलक नामक उद्यान में दीक्षा ली, जब कि सुबाहुकुमार हस्तिशीर्ष नगर में पला और उस ने दीक्षा पुष्पकरण्डक नामक उद्यान में ली। शेष वृत्तान्त एक जैसा है। -हट्ठतुट्टे०-यहां के बिन्दु से-समणं भगवं महावीरं-इत्यादि पाठ का ग्रहण है। समग्रपाठ के लिए श्रीज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के प्रथम अध्याय के 23 वें सूत्र से ले कर 26 . वें सूत्र तक के पाठ को देखना चाहिए। इतने पाठ में श्री मेघकुमार का समस्त वर्णन विस्तारपूर्वक वर्णित हुआ है। निष्क्रमण नाम दीक्षा का है और अभिषेक का अर्थ है-दीक्षासम्बन्धी पहली तैयारी। तात्पर्य यह है कि दीक्षा की आरंभिक क्रियासम्पत्ति को निष्क्रमणाभिषेक कहा जाता है। जिस ने घर-बार आदि का सर्वथा परित्याग कर दिया हो, वह अनगार कहलाता है। तथाइरियासमिए जाव बंभयारी-यहां पठित जाव-यावत् पद से-भासासमिए, एसणासमिए, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए, उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपरिट्ठावणियासमिए, मणसमिए, वयसमिए, कायसमिए, मणगुत्ते, वयगुत्ते, कायगुत्ते, गुत्ते, गुत्तिदिए, गुत्तबंभयारी-इन अवशिष्ट पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अर्थ इस प्रकार है १-ईर्यासमिति-युगप्रमाणपूर्वक भूमि को एकाग्रचित्त से देख कर जीवों को बचाते 1. आगमोदयसमिति पृष्ठ 46 से ले कर पृष्ठ 60 तक का सूत्रपाठ देखना चाहिए। 2. न विद्यते अगारादिकं द्रव्यजातं यस्यासौ अनगारः (वृत्तिकारः)। 3. ईर्या नाम गति या गमन का है। विवेकयुक्त हो कर प्रवृत्ति करने का नाम समिति है। ठीक प्रवचन के अनुसार आत्मा की गमनरूप जो चेष्टा है उसे ईर्यासमिति कहते हैं। यह इस का शाब्दिक अर्थ है। ईर्यासमिति के-आलम्बन, काल, मार्ग और यतना ये चार भेद होते हैं। जिस को आश्रित करके गमन किया जाए वह आलम्बन कहलाता है। दिन या रात्रि का नाम काल है। रास्ते को मार्ग कहते हैं और सावधानी का दूसरा नाम यतना है। आलम्बन के तीन भेद होते हैं-ज्ञान, दर्शन और चारित्र। पदार्थों के सम्यग बोध का नाम ज्ञान है। तत्त्वाभिरुचि को दर्शन और सम्यक आचरण को चारित्र कहते हैं। काल से यहां पर मात्र दिन का ग्रहण है। साधु के लिए गमनागमन का जो समय है, वह दिवस है। रात्रि में आलोक का अभाव होने से चक्षुओं का पदार्थों से साक्षात्कार नहीं हो सकता। अतएव साधुओं के लिए रात्रि में विहार करने की आज्ञा नहीं है। मार्ग शब्द उत्पथरहित पथ का बोधक है। उसी में गमन करना शास्त्रसम्मत अथच युक्तियुक्त है। उत्पथ में गमन करने से आत्मा और संयम दोनों की विराधना 934 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध