________________ अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक का ग्रहण होता है। अथवा पृथ्वी शब्द से अधः, मध्य / और ऊर्ध्व इन तीनों भागों का ग्रहण करना इष्ट है। तात्पर्य यह है कि जिस दुकान में भूमि के निम्नभाग तथा ऊर्ध्वभाग (पर्वतादि) एवं मध्य भाग (सम भूमि) इन तीनों भागों में उत्पन्न होने वाली प्रत्येक वस्तु उपलब्ध हो सके उसे कुत्रिकापण कहते हैं। इस दुकान में एक ऐसा भी विभाग होता था जहां धार्मिक उपकरण होते थे जो सब के काम आते थे। वे उपकरण धार्मिक प्रभावना के लिए बिना मूल्य भी वितरण किये जाते थे। मूल्य देने वाला मूल्य देकर भी ले जा सकता था और उस मूल्य से फिर वही सामग्री तैयार की जाती थी, जो कि धार्मिक कार्यों के उपयोग में आ जाया करती थी। इस के अतिरिक्त स्वतंत्र रूप से भी दान दे कर उस में वृद्धि की जा सकती थी। महाराज श्रेणिक ने दो लाख मोहरें देकर रजोहरण और पात्रों का मूल्य देने के साथ-साथ धर्मप्रभावना के लिए उसे धर्मोपकरणविभाग में दीक्षामहोत्सव के सुअवसर में अवशिष्ट मोहरें दान में दे डाली जो कि उन की दानंभावना एवं धर्मभावना का एक उज्ज्वल प्रतीक था, तथा अन्य धनी-मानी गृहस्थों के सामने उन के कर्त्तव्य को उन्हें स्मरण कराने के लिए एक आदर्श प्रेरणा थी। ऐसा हमारा विचार है। रहस्यन्तु केवलिगम्यम्। दीक्षा-एक महान् पावन कृत्य है। महानता का प्रथम अंक है। इसीलिए यह उत्सव बड़े हर्ष से मनाया जाता है। इस उत्सव में विवाह की भांति आनन्द की सर्वतोमुखी लहर दौड़ जाती है। अन्तर मात्र इतना ही होता है कि विवाह में सांसारिक जीवन की भावना प्रधान होती है, जब कि इस में आत्मकल्याण की एवं परमसाध्य निर्वाणपद को उपलब्ध करने की मंगलमय भावना ही प्रधान रहा करती है। इसीलिए इस में सभी लोग सम्मिलित हो कर धर्मप्रभावना का अधिकाधिक प्रसार करके पुण्योपार्जन करते हैं और यथाशक्ति दानादि सत्कार्यों में अपने धन का सदुपयोग करते हैं। इसी भाव से प्रेरित हो कर महाराज श्रेणिक ने नाई को एक लाख मोहरें दे डालीं। लाख मोहरें दे कर उन्होंने यह आदर्श उपस्थित किया कि पुण्यकार्यों में जितना भी प्रभावनाप्रसारक एवं पुण्योत्पादक लाभ उठाया जा सके उतना ही कम है। इस के अतिरिक्त आगमों में वर्णन मिलता है कि जिस समय भगवान् महावीर चम्पानगरी में पधारते हैं, उस समय उन के पधारने की सूचना देने वाले राजसेवक को महाराज कोणिक ने लाखों का पारितोषिक दिया। यदि पुत्र-दीक्षामहोत्सव के समय खुशी में आकर मगधेश श्रेणिक ने नाई को पारितोषिक के रूप में एक लाख मोहरें दे दी तो कौन सी आश्चर्य की बात 1. संस्कारविशेष या किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए आत्मसमर्पण करना ही दीक्षा का भावार्थ है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [937