________________ पूर्वोक्त 8 समितियों और तीन गुप्तियों से युक्त और गुप्त-मन, वचन और काया को सावद्य प्रवृत्तियों से इन्द्रियों को रोकने वाला और गुप्तेन्द्रिय-कच्छप की भाँति इन्द्रियों को वश में रखने वाला तथा ब्रह्मचर्य का संरक्षण करने वाला। प्रश्न-समिति और गुप्ति में क्या अन्तर है ? उत्तर-योगों में विवेकपूर्वक प्रवृत्ति का नाम समिति है और अशुभ योगों से आत्ममंदिर में आने वाले कर्मरज को रोकना गुप्ति कहलाती है। दूसरे शब्दों में मन:समिति का अर्थ हैकुशल मन की प्रवृत्ति। मनोगुप्ति का अर्थ है-अकुशल मनोयोग का निरोध करना। यही इन में अन्तर है। सारांश यह है कि गुप्ति में असत् क्रिया का निषेध मुख्य है और समिति में सत् क्रिया का प्रवर्तन मुख्य है। अतः समिति केवल सम्यक् प्रवृत्ति रूप ही होती है और गुप्ति निवृत्तिरूप। प्रश्न-महाराज श्रेणिक ने ओघे और पात्रों का मूल्य दो लाख मोहरें दिया तथा नाई को एक लाख मोहरें मेघकुमार के शिरोमुण्डन के उपलक्ष्य में दीं। इस में क्या रहस्य रहा हुआ उत्तर-एक साधारण बुद्धि का बालक भी जानता है कि एक पैसे के मूल्य वाली चीज़ एक पैसे में ही खरीदी जा सकती है, दो पैसों में नहीं। नीतिशास्त्र के परम पण्डित, पुरुषों की 72 कलाओं में प्रवीण और परम मेधावी मगधेश साधारण मूल्य वाले.पदार्थ का अधिक मूल्य कैसे दे सकते हैं ? तब ओघे और पात्रों की अधिक कीमत दो लाख मोहरें देने का अभिप्राय और है जिस की जानकारी के लिए मनन एवं चिन्तन अपेक्षित है। ___ मेघकुमार के लिए जिस दुकान से ओघा और पात्र खरीदे गए थे, उस दुकान का नाम शास्त्रों में "कुत्तियावण-कुत्रिकापण२" लिखा है। कु नाम पृथिवी का है। त्रिक शब्द से 1. -"गुत्ता गुत्तिंदिय त्ति"-गुप्तानि शब्दादिषु रागादिनिरोधात्, अगुप्तानि च आगमश्रवणेर्यासमित्यादिष्वनिरोधादिन्द्रियाणि येषां ते तथा। (औपपातिकसूत्रे वृत्तिकारः) 2. "-कुत्तियावण उ त्ति-" देवताधिष्ठितत्वेन स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणभूत्रितयसंभविवस्तुसम्पादक आपणो-हट्टः कुत्रिकापणः। (औपपातिकसूत्रे वृत्तिकारः) इस का भावार्थ यह है कि देवता के अधिष्ठाता होने से स्वर्गलोक, मनुष्यलोक और पाताललोक इन तीन लोकों में उत्पन्न होने वाली वस्तुओं की जहां उपलब्धि हो सके उस दुकान को कुत्रिकापण कहते हैं। ___ अभिधानराजेन्द्र कोष में कुत्रिकापण की छाया कुत्रिजापण ऐसी भी की है। वहां का स्थल मननीय होने से यहां दिया जाता है कुत्रिकापणः-कुरिति पृथिव्याः संज्ञा।कूनां स्वर्गपातालमर्त्यभूमीनां त्रिकं तात्स्थ्यात्तद्-व्यपदेशः इति कृत्वा लोका अपि कुत्रिकमुच्यते। कुत्रिकमापणायति व्यवहरति यत्र हट्टेऽसौ कुत्रिकापणः। अथवा धातुमूलजीवलक्षणः त्रिभ्यो जातं त्रिजं सर्वमपि वस्त्वित्यर्थः। कौ पृथिव्यां त्रिजमापणायति-व्यवहरति यत्र हट्टेऽसौ कुत्रिजापणः। 936 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय . [द्वितीय श्रुतस्कन्ध