________________ आप.को आराधित कर 26 उपवासों-अनशनव्रतों के साथ आलोचना और प्रतिक्रमण करके आत्मशुद्धि द्वारा समाधि प्राप्त कर कालमास में काल करके सौधर्म नामक देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुआ। तदनन्तर वह सुबाहुकुमार का जीव सौधर्म देवलोक से आयु, भव और स्थिति का क्षय होने पर देव-शरीर को छोड़ कर व्यवधानरहित मनुष्यशरीर को प्राप्त करेगा। वहां पर कांक्षा, आकांक्षा आदि दोषों से रहित सम्यक्त्व को प्राप्त कर तथारूप स्थविरों के पास मुंडित हो यावत् दीक्षित हो जाएगा,वहां पर अनेक वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन करके आलोचना तथा प्रतिक्रमण कर समाधिस्थ हो मृत्युधर्म को प्राप्त कर सनत्कुमार नामक तीसरे देवलोक में उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर मनुष्य भव को प्राप्त कर दीक्षित हो मृत्यु के पश्चात् ब्रह्मलोक नामक पांचवें देवलोक में उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर मनुष्य भव को धारण करके अनगारधर्म का आराधन कर शरीरान्त होने पर महाशुक्र नामक सातवें देवलोक में उत्पन्न होगा।वहां से च्यव कर मनुष्य भव में आकर दीक्षित हो, काल करके आनत नामक नवमें देवलोक में जन्मेगा। वहां की भवस्थिति को पूरी करके फिर मनुष्य भव को प्राप्त हो दीक्षाव्रत का पालन करके मृत्यु के अनन्तर आरण नामक ग्यारहवें देवलोक में उत्पन्न होगा। तदनन्तर वहां से च्यव कर पुनः मनुष्य भव को प्राप्त करेगा और श्रमणधर्म का पालन करके मृत्यु के पश्चात् सर्वार्थसिद्ध नामक विमान में ( 26 वें देवलोक में) उत्पन्न होगा और वहां से च्यव कर सुबाहुकुमार का वह जीव व्यवधानरहित महाविदेह क्षेत्र में किसी धनिक कुल में उत्पन्न होगा। वहां दृढ़प्रतिज्ञ की भाँति चारित्रं प्राप्त कर सिद्ध पद को ग्रहण करेगा। अर्थात् जन्म-मरण से रहित हो कर परम सुख को प्राप्त कर लेगा। * आर्य सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि हे जम्बू ! मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। ऐसा मैं कहता ॥प्रथम अध्ययन समाप्त॥ टीका-सुबाहुकुमार ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास साधुधर्म ग्रहण कर लिया यह पहले बताया जा चुका है, उसके पहले के और इस समय के जीवन में बहुत परिवर्तन हो गया है। कुछ दिन पहले वह राजकुमार था। घर में नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोजन किया करता था परन्तु आज वह अकिंचन है, सर्व प्रकार के राज्यवैभव से रहित है, रूखा-सूखा भोजन करने वाला है वह भी पराये घरों से मांग कर। उस का शरीर इस समय राज्य वेषभूषा द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [941