________________ पुत्र ! तू ने यह क्या कहा ? मैं तो तुम्हारा मुख देख-देख कर ही जी रही हूं। मेरे स्नेह का एकमात्र केन्द्र तो तू ही है। मैंने तो तुम्हें उस रत्न से भी अधिक संभाल कर रखा है, जिसे सुरक्षित रखने के लिए एक सुदृढ़ और सुन्दर डिब्बे की ज़रूरत होती है। मैं तो तुम्हारे आते का मुख और जाते की पीठ देखने के लिए ही खड़ी रहती हूँ। ऐसी दशा में तुम्हारे दीक्षित हो जाने पर मेरी जो अवस्था होगी उस का भी पुत्र गम्भीरता से विचार कर! माता का भी पुत्र पर कोई अधिकार होता है। इसलिए बेटा ! अधिक नहीं तो मेरे जीते तक तो तू इस दीक्षा के विचार को अपने हृदय से निकाल दे। अभी तेरा भर यौवन है, इस के उपयुक्त सामग्री भी घर में विद्यमान है, यह सारा वैभव तेरे ही लिए है, फिर तू इस का यथारुचि उपभोग न कर के दीक्षा लेने की क्यों ठान रहा है ? छोड़ इन विचारों को, तू अभी बच्चा है, संयम के पालने में कितनी कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं, इस का तुझ को अनुभव नहीं है। संयमव्रत का ग्रहण करना कोई साधारण बात नहीं है। इस के लिए बड़े दृढ़ मनोबल की आवश्यकता होती है।' तेरा कोमल शरीर, सुकुमार अवस्था और देवदुर्लभ राज्यवैभव की संप्राप्ति आदि के साथ दीक्षा जैसे कठोर व्रत की तुलना करते हुए मुझे तो तू उसके योग्य प्रतीत नहीं होता। इस पर भी यदि तेरा दीक्षा के लिए ही विशेष आग्रह है तो मेरे मरने के बाद दीक्षा ले लेना। इस प्रकार माता की और महाराज श्रेणिक के आ जाने पर उन की ओर से कही गई इसी प्रकार की स्नेहपूर्ण ममता-भरी बातों को सुन कर माता-पिता को सम्बोधित करते हुए मेघकुमार बोले आप की पुनीत गोद में बैठ कर मैंने तो यह सीखा है कि जिस काम में अपना और संसार का कल्याण हो, उस काम के करने में विलम्ब नहीं करना चाहिए। परन्तु आप कह रहे हैं कि हमारे जीते जी दीक्षा न लो, यह क्यों ? फिर क्या यह निश्चित हो चुका है कि हम में से पहले कौन मरेगा? क्या माता-पिता की उपस्थिति में पुत्र या पुत्री की मृत्यु नहीं हो सकती? मेघकुमार के इस कथन का उत्तर माता-पिता से कुछ न बन पड़ा। तब उन्होंने उसे घर में रखने का एक और उपाय करने का उद्योग किया। महारानी धारिणी और महाराज श्रेणिक बोले बेटा ! यदि तुम को हमारा ध्यान नहीं, तो अपनी नवपरिणीता वधुओं का तो ख्याल करो। अभी तुम इन्हें ब्याह कर लाये हो, इन बेचारियों ने तो अभी तक कुछ भी सुख नहीं देखा। तुम यदि इन्हें इस अवस्था में छोड़ कर चले गए तो इन का क्या बनेगा ? इन की रक्षा करना तुम्हारा प्रधान कर्त्तव्य है। इन के विकसित हुए यौवन का विनाशकर दीक्षा के लिए उद्यत होना कोई बुद्धिमत्ता नहीं। यदि साधु ही बनना है तो अभी बहुत समय है, कुछ दिन घर में . रह कर सांसारिक सुखों का भी उपभोग करो। वंश-वृद्धि का सारा भार तुम पर है बेटा! 926 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [ द्वितीय श्रुतस्कन्ध