________________ मेघकुमार बोला-यह कामभोग तो जीवन को पतित कर देने वाले हैं। स्वयं मलिन . हैं और अपने उपासक को भी मलिन बना देते हैं / यह जो रूप-लावण्य और शारीरिक सौन्दर्य है, वह भी चिरस्थायी नहीं है, और यह शरीर जिसे सुन्दरता का निकेतन समझा जाता है, निरा मलमूत्र और अशुचि पदार्थों का घर है। ऐसे अपवित्र शरीर पर आसक्ति रखना निरी मूर्खता है। इस के अतिरिक्त ये शरीर, धन और कलत्रादि कोई भी इस जीव के साथ में जाने वाले नहीं हैं। समय आने पर ये सब साथ छोड़ कर अलग हो जाते हैं। फिर इन पर मोह करना या विश्वास करना या विश्वास रखना कैसे उचित हो सकता है ? पूज्य माता और पिता जी! इस अस्थिर सांसारिक सम्बन्ध के व्यामोह में पड़ कर आप मुझे अपने कर्त्तव्य के पालन से च्युत करने का यत्न न करें। सच्चे माता-पिता वे ही होते हैं, जो पुत्र के वास्तविक हित की ओर ध्यान देते हैं। मेरा हित इसी में है कि एक वीर क्षत्रिय के नाते कर्मरूप आत्मशत्रुओं को पराजित कर के आत्मस्वराज्य को प्राप्त करूं / इस के लिए साधन है-संयम व्रत का सतत पालन। अतः यदि उस की आप मुझे आज्ञा दे दें, तो मैं आप का बहुत आभारी रहूंगा। आप यदि सांसारिक प्रलोभनों के बदले मुझे यह आशीर्वाद दें कि जा बेटा ! तू संयम व्रत को ग्रहण करके एक वीर क्षत्रिय की भांति कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में सफल हो, तो कैसा अच्छा हो मां ! मुझे शीघ्र आज्ञा दो कि मैं भगवान् के पास दीक्षित हो जाऊं। पिता जी ! कहो न कि दीक्षा लेना चाहते हो तो भले ही ले लो, हमारी आज्ञा है। . मेघकुमार के इस आग्रह भरे वचनसन्दर्भ को सुनने के बाद उस की माता ने संयमव्रत की कठिनाइयों का वर्णन करते हुए फिर कहा, पुत्र ! संयमव्रत लेने की तेरे अन्दर जो भावना है, वह तो प्रशंसनीय है, परन्तु जिस मार्ग का तू पथिक बनने की इच्छा कर रहा है, उस का सम्यक्तया बोध भी प्राप्त कर लिया है ? संयम कहने में तो तीन चार व्यञ्जनों की समुदाय है, पर इस के वाच्य को जीवनसात् करना-जीवन में उतारना, बहुत कठिन होता है। संयम लेने का अर्थ है-उस्तरे की धार को चाटना और साथ में जिह्वा को कटने न देना, तथा नदी के प्रबल वेग के प्रतिकूल गमन करना, महान् समुद्र को भुजाओं से पार करना। इसी भाँति संयम का अर्थ है-बड़े भारी पर्वत को सिर पर उठा कर चलना। इसलिए पुत्र ! सब कुछ सोच-समझ ले, फिर संयम ग्रहण की ओर बढ़ना / कहीं ऐसा न हो कि इधर सांसारिक वैभव से भी हाथ धो बैठो और उधर संयम भी न पाल सको। माता धारिणी फिर बोली, पुत्र ! संयमव्रत में सब से बड़ी कठिनाई यह है कि उस में भोजन की व्यवस्था बड़ी कठिन है। कच्चा पानी इस में त्याज्य होता है। संसारभर के जितने मधुर से मधुर एवं कोमल से कोमल फल-फूल हैं, उन सब का ग्रहण इस में वर्जित होता है। भोजन के ग्रहण में बड़ी सावधानी रखनी पड़ती है। भिक्षा द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [927