________________ आदि अन्त वाले अर्थात् अनित्य हैं। इसलिए हे कौन्तेय ! अर्थात् हे अर्जुन ! बुद्धिमान विवेकी पुरुष इन में रमण नहीं करता। इस के अतिरिक्त ब्रह्मचर्याणुव्रत के संरक्षण के लिए निम्नोक्त 5 कार्यों का त्याग अवश्य कर देना चाहिए १-कुछ काल के लिए अधीन की गई स्त्री के साथ, अथवा जिस स्त्री के साथ वाग्दान-सगाई हो गई है उस के साथ, अथवा अल्प वय वाली अर्थात् जिस की आयु अभी भोगयोग्य नहीं हुई है ऐसी अपनी विवाहिता स्त्री के साथ संभोग आदि करना। २-विवाहिता पत्नी के अतिरिक्त शेष वेश्या, विधवा, कन्या, कुलवधू आदि स्त्रियों के साथ, अथवा जिस कन्या के साथ सगाई हो चुकी है, उस कन्या के साथ संभोग करना। ३-कामसेवन के जो प्राकृतिक अंग हैं उन के अतिरिक्त अन्य अंगों से कामसेवन करना / हस्तमैथुन आदि सभी कुकर्म इस के अन्तर्गत हो जाते हैं। ४-अपनी सन्तान से भिन्न व्यक्तियों का कन्यादान के फल की कामना से, अथवा स्नेह आदि के वश हो कर विवाह कराना। अथवा दूसरों के विवाह-लग्न कराने में अमर्यादित भाग लेना। ___५-पांचों इन्द्रियों के विषय शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्ति रखना, विषयवासनाओं में प्रगति लाने के लिए वीर्यवर्धक औषधियों का सेवन करना, कामभोगों में अत्यधिक आसक्त रहना। . ५-अपरिग्रहाणुव्रत-१-क्षेत्र-खेत, २-वास्तु-घर, गोदाम आदि, ३-हिरण्य-चांदी की बनी वस्तुएं, ४-सुवर्ण-सुवर्ण से निर्मित वस्तुएं, ५-द्विपद-दास, दासी आदि, ६चतुष्पद-गाय, भैंस आदि, ७-धन-रुपया तथा जवाहरात इत्यादि, ८-धान्य-२४ प्रकार का धान्य, तथा ९-कुप्य ताम्बा, पीतल, कांसी, लोहा आदि धातु तथा इन धातुओं से निर्मित वस्तुएं-इन नव प्रकार के परिग्रह की एक करण तीन योग से मर्यादा अर्थात् मैं इतने मनुष्य, गज, अश्व आदि रखूगा, इन से अधिक नहीं, इसी भान्ति सभी पदार्थों की यथाशक्ति मर्यादा करना अर्थात् तृष्णा को कम करना, इच्छापरिमाणरूप पञ्चम अपरिग्रहाणुव्रत कहा जाता है। मूर्छा अर्थात् आसक्ति का नाम परिग्रह है। दूसरे शब्दों में किसी भी वस्तु में चाहे वह छोटी, बड़ी, जड़, चेतन या किसी भी प्रकार की हो, अपनी हो, पराई हो उस में आसक्ति रखना, उस में बन्ध जाना, उस के पीछे पड़ कर अपने विवेक को नष्ट कर लेना ही परिग्रह है। धन आदि वस्तुएं मूर्छा का कारण होने से भी परिग्रह के नाम से अभिहित की जाती हैं, 1. एक करण, एक योग से भी मर्यादा की जा सकती है। मर्यादा में मात्र शक्ति अपेक्षित है। केवल तृष्णा के प्रवाह को रोकना इस का उद्देश्य है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [827