________________ सर्वत्र त्याग होने पर भी स्वस्त्री की जो मर्यादा है वह सभी क्षेत्रों के लिए खुली होती है, उस पर किसी प्रकार का क्षेत्रकृत नियंत्रण नहीं होता, परन्तु दिक्परिमाणव्रत उसे भी सीमित करता है। दिक्परिमाणव्रत धारण करने वाला व्यक्ति मर्यादित क्षेत्र से बाहर स्वस्त्री के साथ भी दाम्पत्य व्यवहार नहीं कर सकेगा। इस प्रकार दिक्परिमाणव्रत ब्रह्मचर्याणुव्रत के पोषण का कारण बनता है। ५-श्रावक का पांचवां परिग्रहाणुव्रत है। इस में भी दिक्परिमाणव्रत विशेषता उत्पन्न कर देता है, क्योंकि दिक्परिमाणव्रत ग्रहण करने वाला व्यक्ति मर्यादित परिग्रह का संरक्षण, अथवा उस की पूर्ति उसी क्षेत्र में रह कर कर सकेगा जो उसने दिक्परिमाणव्रत में जाने और आने के लिए रखा है, उस क्षेत्र से बाहर न तो मर्यादित परिग्रह का रक्षण कर सकेगा और न उस की पूर्ति के लिए व्यवसाय / इस प्रकार दिक्परिमाणव्रत सीमित तृष्णा को और सीमित करने में सहायक एवं प्रेरक होता है। २-उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत-जो एक बार भोगा जा चुकने के बाद फिर न भोगा जा सके, उस पदार्थ को भोगना, काम में लाना उपभोग कहलाता है। जैसे एक बार जो भोजन खाया जा चुका है या जो पानी एक बार पीया जा चुका है, वह भोजन या पानी फिर खाया या पीया नहीं जा सकता, अथवा अंगरचना या विलेपन की जो वस्तु एक बार काम में आ चुकी है, जैसे वह फिर काम में नहीं आ सकती, इसी भान्ति जो-जो वस्तुएं एक बार काम में आ चुकने के अनन्तर फिर काम में नहीं आतीं, उन वस्तुओं को काम में लाना उपभोग कहलाता है। विपरीत इस के जो वस्तु एक बार से अधिक काम में ली जा सकती है, उस वस्तु को काम में लेना परिभोग कहलाता है। जैसे आसन, शय्या, वस्त्र, वनिता आदि। अथवा जो चीज शरीर के आन्तरिक भाग से भोगी जा सकती है, उस को भोगना उपभोग है और जो चीज शरीर के बाहरी भागों से भोगी जा सकती है, उस चीज का भोगना परिभोग है। सभी उपभोग्य और परिभोग्य वस्तुओं के सम्बन्ध में यह मर्यादा करना कि मैं अमुक-अमुक वस्तु के सिवाय शेष वस्तुएं उपभोग और परिभोग में नहीं लाऊंगा, उस मर्यादा को उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत कहा जाता है। __ इच्छाओं के संकोच के लिए दिक्परिमाणव्रत की अपेक्षा रहती है, जिस का वर्णन ऊपर किया जा चुका है, उस के आश्रयण से मर्यादित क्षेत्र से बाहर का क्षेत्र और वहां के पदार्थादि से निवृत्ति हो जाती है, परन्तु इतने मात्र से मर्यादित क्षेत्र में रहे हुए पदार्थों के उपभोग और परिभोग की मर्यादा नहीं हो पाती है। मर्यादाहीन जीवन उन्नति की ओर प्रस्थित न होकर अवनति की ओर प्रगतिशील होता है। इसी दृष्टि को सामने रखते हुए आचार्यों ने सातवें व्रत द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [831