________________ ५-पौषधोपवासव्रत का सम्यक् प्रकार से उपयोगसहित पालन न करना अर्थात् पौषध में आहार , शरीरशुश्रूषा, मैथुन, तथा सावध व्यापार की कामना करना। ४-अतिथिसंविभागवत-जिस के आने का कोई समय नियत नहीं है, जो बिना सूचना दिए, अनायास ही आ जाता है उसे अतिथि कहते हैं। ऐसे अतिथि का सत्कार करने के लिए भोजन आदि पदार्थों में विभाग करना अतिथिसंविभाग व्रत कहलाता है। अथवाजो आत्मज्योति को जगाने के लिए सांसारिक खटपट का त्याग कर संयम का पालन करते हैं, सन्तोषवृत्ति को धारण करते हैं, उन को जीवननिर्वाह के लिए अपने वास्ते तैयार किए गए१-अशन, २-पान, ३-खादिम, ४-स्वादिम,५-वस्त्र, ६-पात्र, ७-कम्बल (जो शीत से रक्षा करने वाला होता है), ८-पादपोंछन (रजोहरण तथा रजोहरणी), ९-पीठ (बैठने के काम आने वाले पाट आदि), १०-फलक (सोने के काम आने वाले लम्बे-लम्बे पाट), ११-शय्या (ठहरने के लिए घर), १२-संथार (बिछाने के लिए घास आदि), १३-औषध (जो एक चीज़ को कूट या पीस कर बनाई जाए) और १४-भोजन (जो अनेकों के सम्मिश्रण से बनी है) ये चौदह प्रकार के पदार्थ निष्काम बुद्धि के साथ आत्मकल्याण की भावना से देना तथा दान का संयोग न मिलने पर भी सदा ऐसी भावना बनाए रखना अतिथिसंविभागवत कहलाता हैं। __ भर्तृहरि ने धन की दान, भोग और नाश ये तीन गतियां मानी हैं। अर्थात् धन दान देने से जाता है, भोगों में लगाने से जाता है या नष्ट हो जाता है। जो धन न दान में दिया गया और न भोगों में लगाया गया उस की तीसरी गति होती है अर्थात् वह नष्ट हो जाता है। तात्पर्य यह है कि धन ने जब एक दिन नष्ट हो ही जाना है तो दान के द्वारा क्यों न उस का सदुपयोग कर लिया जाए, इस का अधिक संग्रह करना किसी भी दृष्टि से हितावह नहीं है। अधिक बढ़े हुए धन को नख की उपमा दी जा सकती है। बढ़ा हुआ नख अपने तथा दूसरे के शरीर पर जहां भी लगेगा वहां घाव ही करेगा, इसी प्रकार अधिक बढ़ा हुआ धन अपने को तथा अपने आसपास के दूसरे साथियों को तंग ही करता है, अशान्ति ही बढ़ाता है। इसलिए बुद्धिमान बढ़े हुए नाखून को जैसे यथावसर काटता रहता है, इसी भान्ति धन को भी मनुष्य यथावसर दानादि के शुभ कार्यों में लगाता रहे। जैन धर्म धनपरिमाण में धर्म बताता है और उस परिमित धन में से भी नित्य प्रति यथाशक्ति दान देने का विधान करता है। जिस का स्पष्ट प्रमाण श्रावक के बारह व्रतों में बारहवां तथा शिक्षाव्रतों में से चौथा अतिथिसंविभाग व्रत है। जो व्यक्ति जैनधर्म के इस परम पवित्र उपदेश को जीवनांगी बनाता है वह सर्वत्र सुखी होता है। इस के अतिरिक्त अतिथिसंविभागवत के संरक्षण के लिए निम्रोक्त 5 कार्यों का त्याग कर देना चाहिए १-सचित्तनिक्षेपन-जो पदार्थ अचित्त होने के कारण मुनि-महात्माओं के लेने 848 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध