________________ भी साधक के लिए वांछनीय नहीं है। बस इसी दृष्टि से श्री सुदत्त मुनि ने स्वयं पारणे के लिए प्रस्थान किया और वे हस्तिनापुर नगर के साधारण और असाधारण सभी घरों में भ्रमण करते हुए अन्त में वहां के सुप्रसिद्ध व्यापारी श्री सुमुख गाथापति के घर में प्रविष्ट हुए। - -रिद्ध-यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ इसी अध्याय में तथा-अड्ढे०-यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ प्रथम श्रुतस्कंधीय द्वितीयाध्याय में लिखा जा चुका है। तथा-जातिसंपन्ना जाव पंचहिं-यहां पठित जाव-यावत् पद-कुलसम्पन्ने बलरूवविणयणाणदंसणचरित्तलाघवसम्पन्ने ओयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी जियकोहे जियमाणे जियमाए जियलोहे जियइन्दिए जियनिद्दे जियपरीसहे जीवियासामरणभयविप्पमुक्के तवप्पहाणे गुणप्पहाणे एवं करणचरणणिग्गहणिच्छयअज्जवमद्दवलाघवखन्तिगुत्तिमुत्तिविज्जामंतबंभवेयनयनियमसच्चसोयणाण-दंसणंचरित्तप्पहाणे उराले घोरे घोरव्वए घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविउलतेउल्लेसे चउद्दसपुव्वी चउणाणोवगए-इन पदों का परिचायक है। जातिसम्पन्न आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है धर्मघोष मुनिराज जातिसम्पन्न-उत्तम मातृपक्ष से युक्त, अथवा जिस की माता सच्चरित्रता आदि सद्गुणों से सम्पन्न हो, कुलसम्पन्न-उत्तम पितृपक्ष से युक्त, अथवा जिस का पिता सच्चरित्रता आदि उत्तम गुणों से सम्पन्न हो, बल-शारीरिक शक्ति, रूप-शारीरिक सौन्दर्य, विनय-नम्रता, ज्ञान-बोध, दर्शन-श्रद्धान, चारित्र-संयम तथा लाघव-द्रव्य से अल्प उपकरण का होना तथा भाव से ऋद्धि, रस और साता के अहंकार का त्याग, से सम्पन्न-युक्त ओजस्वीमनोबल वाले, तेजस्वी-शारीरिक प्रभा से युक्त, वचस्वी-सौभाग्यादि से युक्त वचन वाले, अथवा वर्चस्वी-प्रभा वाले, यशस्वी-यश वाले, जितक्रोध-क्रोध के विजेता, जितमान-मान को जीतने वाले, जितमाय-माया (छलकपट) को जीतने वाले, जितलोभ-लोभ पर विजय . प्राप्त करने वाले, जितेन्द्रिय-इन्द्रियों के विजेता, जितनिद्र-निद्रा-नींद के विजेता, जितपरीषहपरिषहों (क्षुधा, पिपासा आदि) के विजेता, जीविताशामरणभयविप्रमुक्त-जीवन की आशा और मृत्यु के भय से रहित, तपप्रधान-अन्य मुनियों की अपेक्षा जिन का तप उत्कृष्ट था, गुणप्रधान-अन्य मुनियों की अपेक्षा जिन में गुणों की विशेषता थी, ऐसे थे। इसी भाँति वे धर्मघोष मुनिवर करण-पिण्डविशुद्धि (आहारशुद्धि), समिति, भावना आदि जैनशास्त्र के प्रसिद्ध 70 बोलों का समुदाय, चरण-महाव्रत आदि, निग्रह-अनाचार में प्रवृत्ति न करना, निश्चय-तत्त्वों का निर्णय, आर्जव-सरलता, मार्दव-मान का निग्रह, लाघव कार्यों में दक्षता, शान्ति-क्रोधं का न करना, गुप्ति-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति आदि 3 गुप्तियां, मुक्ति-निर्लोभता, विद्या-शास्त्रीय ज्ञान अथवा देवों से अधिष्ठित साधनसहित अक्षरपद्धति, मंत्र-हरिणगमेषी द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [881