________________ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि मत्थएण वंदामि-" अर्थात् मैं तीन बार गुरु महाराज की.दक्षिण की ओर से लेकर प्रदक्षिणा (हाथों का आवर्त-घुमाना) करता हूं, स्तुति करता हूँ, नमस्कार करता हूं, सत्कार करता हूँ, सम्मान करता हूँ, गुरु महाराज कल्याणकारी हैं, मंगलकारी हैं, धर्म के देव हैं और ज्ञान के भण्डार हैं, ऐसे गुरु महाराज की मन, वचन और काया से सेवा करता हूँ, श्री गुरु महाराज को मस्तक झुका कर वन्दना करता हूँ। _ -सयहत्थेणं विउलेणं असणं पाणं ४-यहां के 4 से खाइमं और साइमं इन दो का भी ग्रहण जानना चाहिए। इस उल्लेख में-सयहत्थेणं-का यह भाव है कि सुमुख गृहपति के मानस में इस विचार से परम हर्ष हुआ कि मैं आज स्वयं अपने हाथों से मुनि महाराज को आहार दूंगा।आजकल के श्रावक को इस से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। जब भी साधु महाराज घर पर पधारें तो स्वयं अपने हाथ से दान देने का संकल्प तथा तदनुसार आचरण करना चाहिए। जो लाभ अपने हाथ से देने में होता है, वह किसी दूसरे के हाथ से दिलवाने में प्राप्त नहीं होता, यह बात श्री सुमुख गाथापति के जीवन से भलीभाँति स्पष्ट हो जाती है। फलतः जो श्रावक नौकरों से ही दान कराते हैं, वे भूल करते हैं। _-तुठे ३-यहां पर उल्लेख किए गए 3 के अंक से-पडिलार्भमाणे तुट्टे, पडिलाभिए वि तुढे-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का भावार्थ है कि सुमुख गृहपति दान देते समय मुदित-प्रसन्न हुआ और दान देने के पश्चात् भी हर्षित हुआ। दान देने के पूर्व, दान देने के समय और दान देने के पश्चात् भी प्रसन्नता का अनुभव करना, यही दाता की विशेषता का प्रत्यक्ष चिह्न होता है। .. -दव्वसुद्धेणं ३-यहां दिए गए 3 के अंक से-गाहगसुद्धेणं, दायगसुद्धेणं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अभिप्राय ग्राहकशुद्धि से और दाता की शुद्धि से है, अर्थात् दान देने वाला और दान लेने वाला, दोनों ही शुद्ध होने चाहिएं। दान के सम्बन्ध में जैसा कि पहले बताया गया है, दाता, देय और ग्राहक-ये तीनों जहां 1. पहले समय में तीर्थंकर या गुरुदेव समवसरण के ठीक बीच में बैठा करते थे, अतः आगन्तुक व्यक्ति भगवान् को या गुरुदेव के चारों ओर घूम कर फिर सामने आकर पांचों अङ्ग नमा कर वन्दन किया करता था। घूमना गुरुदेव के दाहिने हाथ से आरम्भ किया जाता था, इन सारे भावों को आदक्षिण-प्रदक्षिणा, इन पदों द्वारा सूचित किया गया है, परन्तु आज यह परम्परा विच्छिन्न हो गई है, आज तो गुरुदेव के दाहिनी ओर से बाईं ओर अंजलिबद्ध हाथ घुमा कर आवर्तन किया जाता है। आवर्तन ने ही प्रदक्षिणा का स्थान ले लिया है। आजकल की इस प्रकार की प्रदक्षिणा-क्रिया का स्पष्ट रूप आरती उतारने की क्रिया में दृष्टिगोचर होता है। अञ्जलिबद्ध हाथों का आवर्तन प्राचीन प्रदक्षिणा का मात्र प्रतीक है। 2. अशन, पान,खादिम और स्वादिम इन पदों का अर्थ प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथमाध्याय में टिप्पणी में दिया जा चुका है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय . [897